Book Title: Chandrayan Vrat Katha
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Page 16
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir |स्पनि वचन बोलने भयेकि हे देवनमें श्रेष्ठ इंद्र तुमनें ॥६॥सना नहुषराजा शची इंद्राणीकों लेनेकीइ च्छा कर्ताहै ऐसा वचन सनके इंद गुरुप्रति // 69 / / ऐसा बोलता भयाकि ब्रह्महत्या के पापयुक्त होने सें मैनोइंद्राएगीकी रक्षा नहीं कर सकताहूं अरुनहषराजा स्वर्गलोक का राज्य कर्ता है // 62|| फिरई इत्युवाचमयाचा पापेनन्हिशक्यते // नहषश्वेन्महीपालनाकलोकंभुनक्ति सेः 62 शचीग्रहीतुकामोयमुपायोत्रविधीयताम्।। अयंचेपृथिवीपालोब्राह्मणान्चेदपारंगान् 63 दुनोतिनितरांजीवनदामष्टःस्वयंभवेत्॥नचेद्राणी नराज्यवैकतुमर्हसिकर्हि चितूं 64 गुरुःप्रसन्नवदनःशचीपनियथोदितम्।।उवा चशक्रवचनशचीश्रुत्यानिविस्मिता 65 प्राणीलेनेकी इच्छा कर्ताहै इसकाउपाय करो जोयहनहुष राना वेदपाठी ब्राह्मरानकों॥ ६३॥बहुनसा दुःरच देवेनो स्वयंही राज्यभष्ट होजावे तब इंद्रा गीकू लेनेकों और राज्य करने कों योग्य नही॥ 64 // ऐसाइंद्रनें कहा तव गुरु बहस्पनिजी प्रसन्न होके || For Private and Personal Use Only

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