Book Title: Chandra Pragnapati ka Paryavekshan Author(s): Kanhaiyalal Maharaj Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_3_Pundit_Dalsukh_Malvaniya_012017.pdf View full book textPage 7
________________ २५ चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति का पर्यवेक्षण दृष्टिवाद गमिक है' दृष्टिवाद का तृतीय विभाग पूर्वगत है उसी पूर्वगत से ज्योतिष गणराज-प्रज्ञप्ति ( चन्द्रप्रज्ञप्ति-सूर्यप्रज्ञप्ति ) का निर्युहण किया गया है, ऐसा चन्द्रप्रज्ञप्ति की उत्थानिका की तृतीय गाथा से ज्ञात होता है। अंग-उपांगों का एक दूसरे से सम्बन्ध है, ये सब आगमिक हैं अतः वे सब कालिक हैं । उसी नन्दी सूत्र के अनुसार चन्द्रप्रज्ञप्ति कालिक है' और सूर्यप्रज्ञप्ति उत्कालिक है । चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति के कतिपय गद्य-पद्य सूत्रों के अतिरिक्त सभी सूत्र अक्षरश: समान हैं अतः एक कालिक और एक उत्कालिक किस आधार पर माने गए हैं ? यदि इन दोनों उपांगों में से एक कालिक और एक उत्कालिक निश्चित है तो "इनके सभी सूत्र समान नहीं थे" यह मानना ही उचित प्रतीत होता है, काल के विकराल अन्तराल में इन उपांगों के कुछ सूत्र विच्छिन्न हो गए और कुछ विकीर्ण हो गए हैं । __मूल अभिन्न और अर्थ अभिन्न चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति के मूल सूत्रों में कितना साम्य है ? यह तो दोनों के आद्योपान्त अवलोकन से स्वतः ज्ञात हो जाता है किन्तु चन्द्रप्रज्ञप्ति के सभी स्त्रों की चन्द्र परक व्याख्या और सूर्यप्रज्ञप्ति के सभी सूत्रों की सूर्य परक व्याख्या अतीत में उपलब्ध थी। यह कथन कितना यथार्थ है ? कहा नहीं जा सकता है, क्योंकि ऐसा किसी टीका नियुक्ति आदि में कहीं कहा नहीं है। यदि इस प्रकार का उल्लेख किसी टीका-नियुक्ति आदि में देखने में आया हो तो प्रकाशित करें। एक के अनेक अर्थ असंभव नहीं एक श्लोक या एक गाथा के अनेक अर्थ असम्भव नहीं हैं। द्विसंधान, पंचसंधान, सप्तसंधान आदि काव्य वर्तमान में उपलब्ध हैं। इनमें प्रत्येक श्लोक की विभिन्न कथा परक टीकायें देखी जा सकती हैं। किन्तु चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति के सम्बन्ध में बिना किसी प्रबल प्रमाण के भिन्नार्थ कहना उचित प्रतीत नहीं होता । विरोध भी, व्यवहार भो ज्योतिषशास्त्र निमित्त शास्त्र माना गया है। इसका विशेष शुभाशुभ जानने में सफल हो सकता है। मानव की सर्वाधिक जिज्ञासा भविष्य जानने की होती है क्योंकि वह इष्ट का संयोग एवं कार्य की सिद्धि चाहता है। नन्दीसूत्र गमिक आगमिक श्रुत सूत्र ४४ २. नदीसूत्र दृष्टिवाद श्रुत सूत्र ९० नन्दीसूत्र उत्कालिक श्रुत सूत्र ४४ ४. नन्दोसूत्र कालिक श्रुत सूत्र ४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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