Book Title: Brahamacharya
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 12
________________ समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य १० समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य जिसे ब्रह्मचर्य ही पालन करना है, उसे तो संयम की बहुत प्रकार से परीक्षा करनी चाहिए, कसौटी करनी चाहिए और यदि फिसल पड़ेंगे ऐसा लगे तो शादी करना बेहतर है। फिर भी वह संयमपूर्वक होना चाहिए। ब्याहता से कह देना चाहिए कि मुझे ऐसे कंट्रोल से (संयमपूर्वक) रहना है। २. विकारों से विमुक्ति की ओर.. प्रश्नकर्ता : 'अक्रम मार्ग' में विकारों को हटाने का साधन कौन सा? तुरंत चले नहीं जाते हैं, पर धीरे-धीरे जाते हैं। फिर भी खुद को सोचना तो चाहिए कि यह विषय कैसी गंदगी है! पुरुष को स्त्री है ऐसा दिखे, तो पुरुष में रोग है तभी 'स्त्री' है ऐसा दिखता है। पुरुष में रोग न हो तो स्त्री नहीं दिखती (केवल उसका आत्मा ही दिखाई देता है)। कितने ही जन्मों से गिनें, तो पुरुषों ने इतनी सारी स्त्रियों से ब्याह किया और स्त्रियों ने पुरुषों से ब्याह किया फिर भी अभी उसे विषय का मोह नहीं टूटता। तब फिर इसका अंत कैसे हो? उसके बजाय अकेले हो जाओ ताकि झंझट ही मिट जाए न! वास्तव में तो ब्रह्मचर्य समझदारी से पालन करने योग्य है। ब्रह्मचर्य का फल यदि मोक्ष नहीं मिलता हो तो वह ब्रह्मयर्च खसी करने के समान ही है। फिर भी ब्रह्मचर्य से शरीर तंदुरुस्त होता है, मजबूत होता है, सुंदर होता है, अधिक जिन्दगी जीते हैं! बैल भी हृष्टपुष्ट होकर रहता है न? प्रश्नकर्ता : मुझे शादी करने की इच्छा ही नहीं होती है। दादाश्री : ऐसा? तो बिना शादी किए चलेगा? प्रश्नकर्ता : हाँ, मेरी तो ब्रह्मचर्य की ही भावना है। उसके लिए कुछ शक्ति दीजिए, समझ दीजिए। दादाश्री : उसके लिए भावना करनी चाहिए। तुम्हें हर रोज़ बोलना चाहिए कि, 'हे दादा भगवान ! मुझे ब्रह्मचर्य पालन करने की शक्ति दीजिए।' और विषय का विचार आते ही उसे उखाड़कर फेंक देना। वर्ना उसका बीज पडेगा। वह बीज दो दिन रहे तब तो फिर मार ही डाले। फिर से उगे। इसलिए विचार आते ही उखाड़ फेंकना और किसी स्त्री की ओर दृष्टि मत डालना। दृष्टि खिंच जाए तो हटा देना और दादाजी का स्मरण करके क्षमा मांगना। विषय आराधन करने योग्य ही नहीं ऐसा भाव निरंतर रहे तो फिर खेत साफ़ सुथरा हो जाएगा। अभी भी हमारी निश्रा में रहेंगे उसका सब पूर्ण हो जाएगा। दादाश्री : यहाँ विकार हटाने नहीं है। यह मार्ग अलग है। कुछ लोग यहाँ मन-वचन-काया का ब्रह्मचर्य लेते हैं और कितने ही स्त्रीवाले (परीणित) हैं, उन्हें हमने रास्ता दिखाया है उस तरह से उसे हल करते हैं। अतः ऐसे 'यहाँ' विकारी पद ही नहीं है, पद ही यहाँ निर्विकारी है। विषय सारे विष हैं मगर बिलकुल विष नहीं हैं। विषय में निडरता विष है। विषय तो लाचार होकर, जैसे चार दिन का भूखा हो और पुलिसवाला पकड़कर (मांसाहार) करवाए और करना पड़े, वैसा हो तो उसमें हर्ज नहीं। अपनी स्वतंत्र मरज़ी से नहीं होना चाहिए। पुलिसवाला पकड़कर जेल में बिठाए तो वहाँ आपको बैठना ही पड़ेगा न? वहाँ कोई अन्य उपाय है? अत: कर्म उसे पकड़ता है और कर्म उसे टकराव में लाता है, उसमें ना नहीं कह सकते न! जहाँ विषय की बात भी है, वहाँ धर्म नहीं है। धर्म निर्विकार में होता है। चाहे जितना कम अंश में धर्म हो, मगर धर्म निर्विकारी होना चाहिए। प्रश्नकर्ता : बात ठीक है पर उस विकारी किनारे से निर्विकारी किनारे तक पहुँचने के लिए कोई नाव (रूपी साधन) तो होनी चाहिए न? दादाश्री : हाँ, उसके लिए ज्ञान होता है। उसके लिए ऐसे गुरु मिलने चाहिए। गुरु विकारी नहीं होने चाहिए। गुरु विकारी हो तो सारा समूह नर्क में जाएगा। फिर से मनुष्य गति भी नहीं देख पाएँगे। गुरु को विकार शोभा नहीं देता।

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