Book Title: Brahamacharya
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 36
________________ ५७ समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य प्रश्नकर्ता : ये लोग शादी करने से इनकार करते हैं तो वह अंतराय कर्म नहीं कहलाता? दादाश्री : हम यहाँ से भादरण गाँव जाएं, इससे क्या हमने अन्य गाँवों के साथ अंतराय डाला? जिसे जहाँ अनुकूलता हो, वहाँ वह जाए। अंतराय कर्म तो किसे कहते हैं कि आप किसी को कछ दे रहे हैं और मैं कहूँ कि नहीं, उसे देने जैसा नहीं है। अर्थात् मैंने आपको अंतराय डाला, तो मुझे फिर से ऐसी वस्तु नहीं मिलेगी। मुझे उस वस्तु का अंतराय पड़ा। प्रश्नकर्ता : यदि ब्रह्मचर्य ही पालना हो तो उसे कर्म कह सकते दादाश्री : हाँ, उसे कर्म ही कहते हैं। उससे कर्म तो बँधेगा! जब तक अज्ञान है तब तक कर्म कहलाता है। चाहे फिर वह ब्रह्मचर्य हो या अब्रह्मचर्य हो। ब्रह्मचर्य से पुण्य बँधता है और अब्रह्मचर्य से पाप बँधता दादाश्री : हाँ, डिस्चार्ज ही! पर इस डिस्चार्ज के साथ उसका भाव है वह अंदर चार्ज होता है। और भाव हो तभी मज़बूती रहेगी न? वर्ना डिस्चार्ज हमेशा फीका पड़ जाता है और यह जो उसका भाव है कि मुझे ब्रह्मचर्य का पालन करना ही है, उससे मज़बूती रहेगी। इस अक्रम मार्ग में कर्ताभाव कितना है, किस अंश तक है कि हम जो पाँच आज्ञा देते हैं न, उस आज्ञा का पालन करना, उतना ही कर्ताभाव है। कोई भी वस्तु पालनी ही पड़े, वहाँ उसका कर्ताभाव है। अत: 'ब्रह्मचर्य पालना ही है' इसमें 'पालना' वह कर्ताभाव है, बाकी ब्रह्मचर्य वह डिस्चार्ज वस्तु है। प्रश्नकर्ता : लेकिन ब्रह्मचर्य पालना वह कर्ताभाव है? दादाश्री : हाँ, पालना वह कर्ताभाव है और इस कर्ताभाव का फल उसे अगले जन्म में सम्यक् पुण्य मिलेगा। अर्थात् क्या कि जरा-सी भी मुश्किल के बगैर सारी चीजें आ मिलें और ऐसा करते-करते मोक्ष में जाएँ। तीर्थंकरों के दर्शन हों और तीर्थंकरों के पास रहने का अवसर भी प्राप्त हो! यानी सभी संयोग उसके लिए बहुत सुंदर हों। प्रश्नकर्ता : रविवार का उपवास और ब्रह्मचारियों का क्या कनेक्शन (अनुसंधान) है? दादाश्री : यह रविवार का उपवास किस लिए करता है? विषय के विरोध में बैठा है। विषय मेरी ओर आए ही नहीं यानी विषय का विरोधी हुआ, तब से ही निर्विषयी हुआ। मैं इनको विषय का विरोधी ही बनाता हूँ, क्योंकि इनसे यों विषय छूटे ऐसा नहीं है। ये तो सभी आरिया (गोल ककड़ी जैसा फल, जो पकने पर थोड़ा छूते ही फट जाता है) हैं, ये तो दुषमकाल के खदखदते आरिया हैं। इनसे कुछ छटनेवाला नहीं है, इसलिए तो मुझे फिर दूसरे रास्ते निकालने पड़ते हैं न? वास्तव में यह विज्ञान ऐसा है कि किसी से 'आप ऐसा करें कि वैसा करें' ऐसा कुछ बोल नहीं सकते। किन्तु यह काल ऐसा है इसलिए " प्रश्नकर्ता : कोई ब्रह्मचर्य का अनुमोदन करता हो. ब्रह्मचारियों को पुष्टि देता हो, उनके लिए हर तरह से उन्हें सुविधा उपलब्ध कराता हो, तो उसका फल क्या है? दादाश्री : फल का हमें क्या करना है? हमें एक अवतारी होकर मोक्ष में जाना है, अब फल का क्या करेंगे? उस फल में तो सौ स्त्रियाँ मिलेंगी, ऐसे फलों का हमें क्या करना है? हमें ऐसे फल नहीं चाहिए। फल खाना ही नहीं है न अब! इसलिए मुझे तो उन्होंने पहले से पूछ लिया था कि 'यह सब करता हँ, तो मेरा पुण्य बँधेगा?' मैंने कहा, 'नहीं बँधेगा।' अभी यह सभी डिस्चार्ज रूप में है और बीज तो सारे भुन जाते हैं। प्रश्नकर्ता : ये सभी जो ब्रह्मचारी होंगे, वह 'डिस्चार्ज' ही माना जाएगा न?

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