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भावना से सुधरे जन्मोजन्म
अर्थात् स्यादवाद मार्ग ऐसा होता है। हर एक के धर्म का स्वीकार करना पड़ता है। सामनेवाला दो थप्पड़ मारे तो भी हमें स्वीकार करना चाहिए, क्योंकि सारा जगत निर्दोष है। दोषी नज़र आता है, वह आपके दोष को लेकर नज़र आता है। बाकी, जगत दोषी है ही नहीं। लेकिन आपकी बुद्धि दोषी दिखाती है कि इसने ग़लत किया ।
अवर्णवाद, अपराध, अविनय...
प्रश्नकर्ता : ३. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी देहधारी उपदेशक साधु, साध्वी या आचार्य का अवर्णवाद, अपराध, अविनय न करने की परम शक्ति दो। इसमें जो अवर्णवाद शब्द है न, उसकी यथार्थ समझ क्या है?
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दादाश्री : किसी भी तरह जैसा है वैसा बताने के बजाय उलटा बताना, वह अवर्णवाद कहलाता है। जैसा है वैसा नहीं पर ऊपर से उससे उलटा । जैसा है वैसा चित्रण करें, ग़लत को ग़लत और सही को सही कहें, तो अवर्णवाद नहीं कहलाता। पर सारा ही ग़लत कहें तब अवर्णवाद कहलाता है। हरएक मनुष्य में कुछ अच्छा होगा कि नहीं होगा? और थोड़ा उलटा भी होगा। पर उसका सारा का सारा उलटा बताएँ, तब फिर वह अवर्णवाद कहलाता है। 'इस मामले में ज़रा ऐसे है, लेकिन दूसरे मामलों में बहुत अच्छे है,' ऐसा होना चाहिए।
किसी के बारे में हम जो कुछ जानते हैं उसके विरुद्ध में बोलें, जो गुण उसमें नहीं है ऐसे गुणों की हम से होनेवाली सारी बातें वह अवर्णवाद कहलाता है। वर्णवाद यानी क्या कि जो है वह कहना और अवर्णवाद यानी जो नहीं है वह कहना । वह तो भारी विराधना कहलाती है, बहुत बड़ी विराधना कहलाती है। सामान्य लोगों के संदर्भ में निंदा कहलाती है किन्तु महान पुरुषों का तो अवर्णवाद कहलाता है। महान पुरुष यानी जो अंतर्मुख हुए हैं वे । महान पुरुष यानी यह व्यवहार के महान हैं वे नहीं, प्रेसिडन्ट (राष्ट्रपति) हों वे नहीं । अंतर्मुख हुए पुरुषों
भावना से सुधरे जन्मोजन्म
का अवर्णवाद करना, वह तो बड़ा जोखिम है ! अवर्णवाद बड़ा जोखिमकारक है ! वह तो विराधना से भी बढ़कर है।
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प्रश्नकर्ता: उपदेशक, साधु आचार्यों के लिए ऐसा कहा है न?
दादाश्री : हाँ, वे सभी। वे भले ही राह पर हों या नहीं हों, ज्ञान हो या नहीं हो, यह हमें नहीं देखना है। वे भगवान महावीर के आराधक हैं न! वे जो भी करें, सही या गलत, पर भगवान महावीर के नाम पर करते हैं न? इसलिए उनका अवर्णवाद नहीं कर सकते ।
प्रश्नकर्ता: अवर्णवाद और विराधना में क्या अंतर है?
दादाश्री : विराधना करनेवाला तो उलटा जाता है, नीचे जाता है, अधोगति में और अवर्णवाद करनेवाला तो फिर प्रतिक्रमण करे तो गिरता नहीं, जैसा था वैसा, सामान्य हो जाता है। किसी का अवर्णवाद करें मगर फिर प्रतिक्रमण करें तो शुद्ध हो जाता है।
प्रश्नकर्ता : अविनय और विराधना के बारे में समझाइये न?
दादाश्री : अविनय विराधना नहीं कहलाता। अविनय तो निम्न स्टेज है और विराधना तो सही मानों में उसके विरुद्ध गया कहलाता है। अविनय यानी मुझे कुछ लेना-देना नहीं है, ऐसा । विनय नहीं करे, उसका नाम अविनय ।
प्रश्नकर्ता: अपराध यानी क्या?
दादाश्री : आराधना करनेवाला मनुष्य ऊपर चढ़ता है और विराधना करनेवाला नीचे उतरता है । पर अपराध करता हो तो दोनों ओर से मार खाता है। अपराध करनेवाला खुद आगे नहीं बढ़ता और किसी को बढ़ने भी नहीं देता । वह अपराधी कहलाता है।
प्रश्नकर्ता: और विराधना में भी किसी को आगे बढ़ने नहीं देता न? दादाश्री : पर विराधनावाला बेहतर। किसी को पता चला तो फिर