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भावना से सुधरे जन्मोजन्म
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भावना से सुधरे जन्मोजन्म
जा सकती हैं वे सारी चेष्टाएँ कहलाती हैं। आप मज़ाक उड़ाते हों, वह चेष्टा है। ऐसे हँसते हों वह भी चेष्टा कहलाती है।
प्रश्नकर्ता : अर्थात् किसी की हँसी उड़ाना, किसी का मज़ाक उड़ाना वे चेष्टाएँ कहलाती हैं?
दादाश्री : हाँ, ऐसी बहुत प्रकार की चेष्टाएँ हैं। प्रश्नकर्ता : तो यह विषय-विकार संबंधी चेष्टाएँ किस तरह से हैं?
दादाश्री : विषय-विकार के बारे में भी देह ऐसी जो-जो क्रिया करे, जिसकी तस्वीर ली जा सके, वे सारी चेष्टाएँ कहलाती हैं। जो क्रिया देह से नहीं हो, उसे चेष्टा नहीं कहते। कभी-कभी इच्छाएँ होती हैं, मन में विचार आते हैं, पर वे चेष्टाएँ नहीं होती हैं। विचार संबंधी दोष मन के दोष हैं।
स्पर्धा में जैसे तंत होता है न? 'देखो, मैंने कैसा बढ़िया खाना पकाया और उसे तो पकाना ही नहीं आता !' ऐसे तंत हो जाता है, स्पर्धा में आ जाता है। वह तंतीली भाषा (सुनने में) बहुत बुरी होती है।
कठोर और तंतीली भाषा नहीं बोलनी चाहिए। भाषा के सारे दोष इन दो शब्दो में समा जाते हैं। इसलिए फुरसत के समय में 'दादा भगवान' से हम शक्ति माँगते रहें। कर्कश बोला जाता हो तो उसकी प्रतिपक्षी शक्ति माँगना कि मुझे शुद्ध वाणी बोलने की शक्ति दो, स्याद्वाद वाणी बोलने की शक्ति दो, मुदु-ऋजु भाषा बोलने की शक्ति दो, ऐसा माँगते रहना। स्यावाद वाणी यानी किसी को दुःख नहीं हो ऐसी वाणी।
निर्विकार रहने की शक्ति दो प्रश्नकर्ता : ६. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी देहधारी जीवात्मा के प्रति स्त्री, पुरुष या नपुंसक, कोई भी लिंगधारी हो, तो उसके संबंध में किंचित्मात्र भी विषय-विकार संबंधी दोष, इच्छाएँ, चेष्टाएँ या विचार संबंधी दोष न किये जायें, न करवाये जायें या कर्ता के प्रति अनुमोदना न की जायें, ऐसी परम शक्ति दो। मुझे निरंतर निर्विकार रहने की परम शक्ति दो।
दादाश्री : आपकी दृष्टि बिगड़ते ही आप तुरंत अंदर 'चन्दुभाई' (चन्दुभाई की जगह पाठक स्वयं को समझे) से कहना, 'ऐसा नहीं करना चाहिए। ऐसा हमें शोभा नहीं देता। हम खानदान क्वॉलिटी के (गुणवाले) हैं। जैसी हमारी बहन होती है वैसे वह भी दूसरे की बहन है। हमारी बहन पर किसी की कुदृष्टि हो तो हमें कितना बुरा लगे! वैसे दूसरों को भी दुःख होगा कि नहीं? इसलिए हमें ऐसा शोभा नहीं देता। अर्थात् दृष्टि बिगड़ने पर पछतावा करना चाहिए।
प्रश्नकर्ता : चेष्टाएँ, इसका क्या अर्थ है? दादाश्री : देह से होनेवाली सारी क्रियाएँ, जिसकी तस्वीर खींची
'मुझे निरंतर निर्विकार रहने की शक्ति दीजिए।' इतना आप 'दादाजी' से माँगना। 'दादाजी' तो दानेश्वर हैं।
रस में लुब्धता न हो... प्रश्नकर्ता : ७. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी रस में लुब्धता न हो ऐसी शक्ति दो। समरसी आहार लेने की परम शक्ति दो।
दादाश्री : भोजन लेते समय आपको अमुक सब्जी, जैसे कि टमाटर की ही रुचि हो, जिसकी आपको फिर से याद आती रहे, तो वह लुब्धता कहलाती है। टमाटर खाने में हर्ज नहीं है पर फिर से याद नहीं आना नहीं चाहिए। वरना हमारी सारी शक्ति लुब्धता में चली जायेगी। इसलिए हमें कहना चाहिए कि, 'जो भी आये मुझे मंजूर है।' किसी भी प्रकार की लुब्धता नहीं होनी चाहिए। थाली में जो खाना आये, आम्ररस और रोटी आये, तो आराम से खाना। उसमें किसी प्रकार का हर्ज नहीं है। पर जो कुछ आये उसे स्वीकार करना, दूसरा कुछ याद नहीं करना।