Book Title: Bhavi Jineshwar Amamswami Charitra Mahakavya Part 01
Author(s): Muniratnasuri, Vijaykumudsuri
Publisher: Manivijay Ganivar Granthmala
View full book text ________________ श्रीअमम जिन चरित्रम् विडम्बिता // 286 // देवकीयुतः / निन्ये कंसेन मथुरापुर्यां सौहार्दवृद्धये // 89 // सुहृद्विवाहहर्षोत्थं कंसस्तत्रोत्सवं व्यधात् / अमानमदिरापानमत्तनृत्यद्वधूजनम् // 90 // अतिमुक्तो मुनिः कंसानुजः प्रागात्तसंयमः। आगात्तपशः कंसगृहे पारणकारणात् // 91 / / कंसप्रिया तमायान्तं तदा प्रेक्ष्य मदाकुला / साधू साधूत्सवदिने देवराऽद्यागतोऽसि भोः॥९२॥ द्रुतं तदेहि नृत्याव इत्याधुच्छंखलं बहु / उक्त्वा व्यडम्बय| त्कण्ठे लगित्वैनं गृहस्थवत् // 93 / / युग्मम् // प्रोचे सोऽपि मुनिर्ज्ञानी यदर्थोऽयं महोत्सवः / तद्गर्भात्सप्तमाद् भावी मृत्युः पत्युः पितुश्च ते // 94 // वाचं जीवयशाः श्रुत्वा तां वज्राघातदुःसहाम् / साध्वसान्निर्मदीभूता द्रुतं मुक्त्वा मुनीश्वरम् / / 15 / / गत्वकान्ते स्फु| रत्खेदं कंसायेदं न्यवेदयत् / सोऽपि दध्यौ भवेन्मोघमपि वज्रं न साधुगीः // 96 // यावन्न कोपि वेत्त्येतद्याचे तावदनागतम् / सप्ताऽपि देवकीगर्भान् दुन्दुं स हि सुहृन्मम // 97 // याचितश्चेन्न मे दाता शौरिस्तानऽन्यथा तदा / स्वक्षेमाय यतिष्येऽहं नीतेस्त| स्वमिदं खलु // 98 // विमृश्येत्यमदोप्येष नाटयन्नटवन्मदम् / दुरात्कृताञ्जलिः शौरेः पार्श्वमागात् प्रियान्वितः // 99 // अभ्युत्थाय दशाहेण सत्कृत्य प्रतिपत्तिभिः / अध्यास्य स्वान्तिके पृष्ठे परामृश्य च पाणिना // 1500 / ऊचे ससम्भ्रमं कंस ! सुहृत्प्राणप्रियोऽसि | मे / विवक्षुरसि चेत् किश्चिद् ब्रूहि कुर्वे यथाशु तत् // 1 // युग्मम् // श्रुत्वेति कंसो भ्रत्कुंस इवाऽऽविकृतसम्मदः। ऊचेऽग्रेऽपि जरासन्धात्मजां दापयिता त्वया // 2 // सखे प्रतिष्ठां नीतोऽस्मि महिष्ठां प्रार्थये ततः। त्वं गर्भान् सप्त देवक्या जातमात्रान् ममापये // 3 // युग्मम् / / इत्थं धूर्तेन तेनैष प्रार्थितश्चाटुकारिणा / स्वभावशरलात्मा तद्वसुदेवोऽस्य कैतवम् // 4 // दैवादजानन् शिशुवत्तद्वचः प्रत्युपद्यत / मन्ये द्वावष्यकार्यतां कर्मणा भाविना द्वयम् // 5 // देवक्यपि तदा नौवत्तत्त्वाब्धेरुपरि स्थिता / ऊचेऽस्त्वे | नान्तरं ते शौरेश्च तनुजन्मनाम् // 6 // योजितौ स्वस्त्वयैवावाम् / विधिनेवाऽधुना ततः। कंस ! किं ? शंकित इवाऽनधिकारीव चा तिमुक्तमुनेझते स्ववधवृत्तान्ते कंसस्य देवकीसप्तगर्भ| याचनायाः कृतः स्वीकारो ना सर्ग-६ // 286 //
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