Book Title: Bhattaraka Kanakkushal aur Kunvar kushal
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Z_Vijay_Vallabh_suri_Smarak_Granth_012060.pdf

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Page 4
________________ आचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ था जिसकी प्रतियाँ गत २।३ वर्ष में ही बिक कर कुछ तो मुनि जिनविजयजी से खरीदी जाकर राजस्थान पुरातत्व मंदिर, जयपुर के संग्रह में चली गई। अवशेष मुनिवर्य पुण्यविजयजी के द्वारा खरीदी जाकर पाटन के हेमचंद्रसूरि ज्ञान मंदिर में संग्रहीत हो चुका हैं। राजस्थान पुरातत्व मंदिर से, ढाई वर्ष पूर्व बाबू समिति के प्रसंग से यहाँ जाने पर मैं कुछ प्रतियाँ लाया था और उन में से तीन का परिचय "जीवन साहित्य" के मार्च, जून १६५३ में प्रकाशित किया गया था! तदनन्तर अहमदाबाद के इतिहास सम्मेलन की प्रदर्शिनी में पुण्यविजय जी द्वारा संग्रहीत प्रतियें देखने को मिलीं। उन्हें मंगवा कर विवरण ले लिया गया। यहाँ इन दोनों स्थानों से प्राप्त कनककुशल, कुँअरकुशल और लक्ष्मीकुशल की हिन्दी रचनाओं का क्रमशः परिचय दिया जा रहा है। भट्टारक कुंवरकुशल के हिन्दी ग्रन्थ १. लखपतमंजरी नाममाला : इसकी पद्य संख्या २०२ है। प्रारम्भ में भुजनगर और महारावल लखपत के वंश का वर्णन १०२ पद्यों तक में दिया गया है। फिर नाममाला प्रारम्भ होती है जो २०० पद्यों तक चलती है। अंतिम दो पद्य प्रशस्ति के रूप में हैं। इसकी दो प्रतियाँ प्राप्त हुई हैं, जिनमें पाटणवाली पहली प्रति में पद्य-संख्या २०५ है, पत्र-संख्या १४। इसकी प्रशस्ति इस प्रकार हैं: "इति श्रीमन् महाराउ श्री देशलजी सुत महाराज कुमार श्री सात श्री लखपति मंजरी नाममाला सम्पूर्ण । सकल पंडित कोटि-कोटीर पंडितेन्द्र श्री १०८ श्री प्रतापकुशल-ग. शिशुना कनककुशलेन रचिता। संवति १७६४ बरसे अासाढ सुदी ३ सोमे।" इससे रचनाकाल १७६४ सिद्ध होता है। दूसरी प्रति जयपुरवाली संवत १८३३ की लिखित है। उसमें पद्य २०२ हैं। रावल लखपति के नाम से रचे जाने के कारण इसका नाम 'लखपत-मञ्जरी' रक्खा गया। श्रादिअन्त इस प्रकार है: विबुध वृन्द वंदित चरण, निरुपम रूपनिधान। अतुल तेज आनन्दमय, वंदहु हरि भगवान ।। १॥ अन्त: लखपति जस सुमनस ललित, इकबरनी अभिराम । सुकवि कनक कीन्ही सरस, नाम-दाम गुण धाम ॥१॥ सुनत जासु है सरस फल, कल्मस रहै न कोय । मन जपि लखपतिमंजरी, हरि दरसन ज्यों होय ॥२॥ २. सुन्दर श्रृंगार की रसदीपिका भाषा टीका: शाहजहाँ के सम्मानित महाकविराज सुन्दर के रचित सुन्दर शृंगार की यह भाषाटीका लखपति के नाम से ही रची गई। इसका परिमाण २८७५ श्लोकों का है जिनमें मूल पद्य तो ३६५ ही हैं। इसकी दो प्रतियां पाटन से प्राप्त हुई हैं जिनमें एक के अन्तमें “इतिश्री सुन्दर शृंगारिणी टीका भट्टारक श्रीकनककुशलसूरिकृत संपूर्णः” लिखा है इससे टीकाकार कनककुशल सिद्ध होते हैं, अन्यथा प्रशस्ति में तो कुंवर लखपति द्वारा रचे जाने का उल्लेख है। यथा अथ टीकाकृत दोहा यह सुंदर सिंगार की, रसदीपिका सुरंग ।। रची देशपति राउ सुत, लखपति लहि रसअंग ॥१॥ टीका: यह सुन्दर कविकृत सुन्दर सिंगारकी टीका रसदीपिका नांउं । सुरंग भले रंग की रचि कहा बनाई महाराउ। देशपति कहा कछ देशपति श्री देशल जू सुत कुंवार लखपति ने लहि रस अंग पाइके रसमय कही रसिक अंग १ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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