Book Title: Bhattaraka Kanakkushal aur Kunvar kushal
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Z_Vijay_Vallabh_suri_Smarak_Granth_012060.pdf

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Page 8
________________ आचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ यहाँ यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि राज्याश्रय प्राप्त होने के कारण इन्होंने अपनी रचना के प्रारम्भ में कहीं भी जैन तीर्थकर आदि की स्तुति नहीं कर सूर्य, देवी और शिवशक्ति जो राजा के मान्य थे, उन्हींकी मंगलाचरण में स्तुति की है। ७२ इन दोनों गुरु-शिष्यों का भट्टारक पद एवं सूरि- विशेषण भी विशेष रूप से ध्यान आकर्षित करत है। जैन परम्परा के अनुसार ये दोनों पद विशिष्ट गच्छ नायक श्राचार्य के लिए ही प्रयुक्त होते हैं। पर भट्टारक पद तो यहाँ राउ लखपति के प्रदत्त है। सूरि पद उसीसे संबंधित होने से प्रयुक्त कर लिया प्रतीत होता है । जैन परम्परा के अनुसार उनका पद पन्यास ही था । इन भट्टारक द्वय की परम्परा का प्रभाव व राज्यसंबंध पीछे भी रहा है । यद्यपि पीछे कौन कौन ग्रन्थकार हुए, ज्ञात नहीं हैं। उल्लेखनीय रचनात्रों में लक्ष्मीकुशल रचित पृथ्वीराज विवाह ही है, जो संवत् १८५१ एवं ५२ पद्यों में रचा गया है । इस की २ प्रतियां जयपुर से प्राप्त हुई थीं । आादि अन्त इस प्रकार हैं : आदि: संवत् अारसें एकावन वैशाख मास वदि दसम दिन्न । अन्त : Jain Education International हिय हरष व्यापि थाप्यो जु ब्याह अवनी कछ लोक तिहु उछाह ॥ १ ॥ भोजन की बहु भांति भांति पावत जब राति बैठ पांति । परस परी करी पहरावनीय भई बात सबै मन भावनीय ॥ ५० ॥ इति श्री महाराउ कुमार श्री प्रथीसिंह विवाहोत्सव : पं. लिखमीकुशल कृत संपूर्णः ॥ ये पृथ्वीराज महाराउ लखपत के पुत्र गौड़ के पुत्र थे । इन के बड़े भाई रायधनजी गद्दी पर बैठे | कनककुशल की परंपरा में और भी कोई ग्रन्थकार हुए हों तो उनकी कोई बडी रचना मुझे प्राप्त न हो सकी । जयपुर संग्रह से प्राप्त एक गुटके में, जो उसी परम्परा के ज्ञानकुशल शिष्य कीर्तिकुशल का लिखा हुआ है, उसमें कुछ फुटकर रचनाएं अवश्य मिली हैं। जिनमें 'भाईजीनो जस' नामक रचना उपरोक्त पृथ्वीराज की प्रशंसा में लक्ष्मीकुशल के रचित फुटकर पद्यों के रूप में हैं। इसी प्रकार गंगकुशल रचित सात श्लोकों का एक स्तोत्र और अन्य कई कवियों की लघु कृतियाँ हैं । उनमें कुछ पद्यों के रचयिता का नाम नहीं है । और कुछ नामवाले कवियों का इस परम्परा से क्या सम्बन्ध रहा है, पता नहीं चल सका, इसलिए यहाँ उनका उल्लेख नहीं किया जा रहा है। यह गुटका सं. १८८८ में ज्ञानकुशल के शिष्य कीर्तिकुशल ने मानकुंश्रा में मुनि गुलालकुशल और रंगकुशल के लिए लिखा। इसके बाद की परम्परा के नाम ज्ञात न हो सके। इस परम्परा के यतिजी के ज्ञानभण्डार की समस्त प्रतियाँ के अवलोकन करने पर संभव है और भी विशेष एवं नवीन जानकारी प्राप्त हो । अन्य विद्वानों से अनुरोध है, कि वे अपनी विशेष जानकारी प्रकाश में लाएं। लखपतमञ्जरी का कविवंश वर्णन राजेसुर पहिले रिषभ, साधि जोग शुभ ध्यानु । ज्योतिरूप भये ज्योतिमिति, विमलज्ञान भगवानु ॥ २२ ॥ सकल राजमण्डल सिरै, सेवत जिन्हें सुचीशु । तीर्थकर तैसे भये, बहुरि और बाईसु || २३ || For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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