Book Title: Bhattaraka Kanakkushal aur Kunvar kushal
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Z_Vijay_Vallabh_suri_Smarak_Granth_012060.pdf

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Page 7
________________ भट्टारक कनककुशल और कुँअरकुशल इति श्रीमन्त महाराज लक्षपति अादेशात सकल भट्टारक पुरन्दर म. श्री कनककुशलसूरि शि. कुंवरकुशल विरचिते, लक्षपति जससिन्धु शब्दालंकारार्थालंकार त्रयोदश तरंग। चुरु के यतिजी के संग्रह में इसकी प्रति देखी थी। ६. लखपति स्वर्ग प्राप्ति समय : संवत १८१७ में महाराव लखपति जेठ सुदी ५ को कालधर्म प्राप्त हुए। जिसका वर्णन कवि ने ६० पद्यों में किया है। इस की एक ही प्रति जयपुर संग्रह से प्राप्त हुई है। श्रादि अंत इस प्रकार हैं: आदि: दौलति कविता देत है, दिन प्रतिदिन कर देव । ___कविजन याते करत हैं, सुकर-सफल सुभचेव ॥ १ ॥ अन्त : यह समयो लखधीर को, कौ सुनै पढे सुज्ञान सकल मनोरथ सिद्धि हैं, परमसुधारस पान ॥६० ॥ प्रति में लेखक ने इसे “महाराज लखपतिजीना मरसिया" की संज्ञा दी है। जो उचित ही है। ७. महाराउ लखपति दुवात : इसकी प्रति श्रोलिये के रूप की हालही में मुनि श्री पुण्यविजयजी की कृपा से प्राप्त हुई है। यह वर्णनात्मक खड़ी बोली हिंदी गद्य काव्य है । लगभग ५०० श्लोक परिमित यह रचना 'दुवाबैत' संज्ञक रचनात्रों में सबसे बड़ी और विशिष्ट है । वर्णन की निराली छटा पठते ही बनती है। आदि-अंत इस प्रकार है: श्रादि : अहो आवो बे यार, बैठो दरबार । ये चंदनी राति, कहो मजलसि की बाति । कहो कौन कौन मुलक कौन राजा कौन देखे, कौन कौन पातस्या देखे । अन्त : जिनिकी नीकी करनी, काहू तें न जाय बरनी । अतुल तेज उछहतै च्यारों जुग अमर, यह सदा सफल असी देत कवि कुंअर ।। इतिश्री महाराउ लखपति दुवाबैल संपूर्ण । ८. मातानो छन्द: यह तीस पद्यों का है। कच्छ के राजाओं की कुलदेवी प्रासापुरा की इसमें स्तुति की गयी है। इसकी दूसरी संज्ञा "ईश्वरी छंद" भी है। इसकी भाषा डिंगल है। आदि-अन्त इस प्रकार है: आदि : बड़ी जोति ब्रह्माण्ड अम्बा विख्याता । तुमै अासपूरा सदा कच्छ त्राता ॥ रंग्या रंग लाली किया पाय राता । भजो श्रीभवानी सदा सुक्ख दाता ॥१॥ अन्त : करी भटारक बीनती, धरो अम्बिका कान । कुंअर कुशल कवि नै सदा, द्यो सुख-संपति दान ॥ ३०॥ २६ वें पद्य में भुजपति गौहड़राव और उनके पुत्र कुंवर रायधन का उल्लेख है। अतः यह रचना परवर्ती ही है। खोज करने पर कुंवरकुशल के अन्य ग्रन्थ भी मिलने सम्भव है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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