Book Title: Bhattaraka Kanakkushal aur Kunvar kushal
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Z_Vijay_Vallabh_suri_Smarak_Granth_012060.pdf

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Page 5
________________ ६६ भट्टारक कनककुशल और कुँअरकुशल इति श्री सुन्दर सिणगार नी टीका भट्टारक श्री कनककुशल सूरि कृत सम्पूर्ण ॥ यह टीका श्री लखपत के कुमारावस्था में ही रची गई । अतः संवत १७९८ से पहले की है। भट्टारक कनककुशल के ये दो ग्रन्थ ही मिले हैं पर अभी और खोज की जानी आवश्यक है। सम्भव है कुछ और रचनायें भी मिल जायें। भट्टारक कनककुशल के हिन्दी ग्रन्थ कुंवरकुशल कनककुशलजी के प्रधान शिष्य थे। वैसे उनके कल्याणकुशल श्रादि अन्य शिष्य भी थे। पर उनकी कोई रचना नहीं मिलती। महाराव लखपत और उनके पुत्र गौड़ दोनों से कुंवरकुशल सम्मानित थे। इन दोनों राजाओं के लिए इन्होंने ग्रन्थ-रचना की। जिनका समय संवत १७६४ से १८२१ तक का हैं। कुंवरकुशलजी की लिखी हुई कई प्रतियाँ पाटन से प्राप्त हुई थीं। जिनमें पिंगलशास्त्र (संवत १७६१), पिंगलहमीर (सं.१७६५), लखपतिपिंगल (सं.१८०७), गोहडपिंगल (सं. १८२१) की लिखित हैं। ये कोश, छन्द, अलंकार आदि के अच्छे विद्वान थे। इन तीनों विषयो के श्राप के पाँच हिन्दी ग्रन्थ मिले हैं। जिनका परिचय इस प्रकार है। १. लखपति मंजरी नाममाला : इसकी एक ही प्रति बारह पत्रों की जयपुर से प्राप्त हुई। जिसमें १४६ पद्य हैं। प्राप्त अंश में १२१ पद्यों तक लखपत के वंश का ऐतिहासिक वृत्तान्त है और पिछले २८ पद्यों में कवि-वंश वर्णन है। मूल नाममाला का प्रारम्भ इसके बाद ही होना चाहिए जो प्राप्त प्रति में लिखा नहीं मिलता। संवत १७६४ के आसाढ सुदी २ को इनके गुरु ने इसी नाम का ग्रन्थ बनाया और उसके कुछ महीने पश्चात ही संवत १७६४ के माघ बदी ११ को इस नामवाले दूसरे ग्रन्थ की रचना उनके शिष्य ने की। यह विशेषरूप से उल्लेखनीय है। इसकी पूरी प्रति प्राप्त होने पर ग्रन्थ कितना बड़ा है, पता चल सकेगा। ___महारावल लखपति के कथनानुसार ही इस नाममाला की रचना हुई है। श्रादि अन्त के कुछ पद्य इस प्रकार है: श्रादि: सुखकर वरदायक सरस, नायक नित नवरंग। लायक गुनगन सौं ललित, जय शिव गिरिजा संग ॥१॥ अन्त : करि लखपति तासौं कृपा, कह्यौ सरस यह काम । मंजुल लखपति मंजरी, करहु नाम की दाम ।। ४८ ।। तव सविता को ध्यान धरि, उदित को प्रारंभ । बाल बुद्धि की वृद्धि को यह उपकार अदंभ ॥ ४६ ॥ २. पारसात नाममाला : यह फारसी भाषा के पारसात नाममाला का व्रजभाषा में पद्यानुवाद है। पद्य संख्या ३५३ है। इससे कुंवरकुशल के फारसी भाषा के ज्ञान का पता चलता है। इसकी भी एक ही प्रति जयपुर-संग्रह से प्राप्त हुई है जो सं. १८२७ की लिखित है। किय लखपति कुंअरेस कौं, हित करि हुकम हुजूर । पारसात है पारसी, प्रगटहु भाषा पूर ॥ ६ ॥ बंछित वरदाता विमल, सूरज होहु सहाय । पारसात है पारसी, ब्रज भाषा जु बनाय ॥ १० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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