Book Title: Bhattaraka Kanakkushal aur Kunvar kushal Author(s): Agarchand Nahta Publisher: Z_Vijay_Vallabh_suri_Smarak_Granth_012060.pdf View full book textPage 2
________________ आचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ उपकारी और अबू सैद सुल्तान को प्रतिबोध देनेवाले थे। इनके पट्ट पर कुशलमाणिक्य, फिर सहजकुशल' हुए जिनके वचन से बाबर बादशाह ने जजिया कर छोडा था। इनके पट्ट पर क्रमशः लक्ष्मीकुशल, देवकुशल, धीरकुशल हुए। इनके पट्ट पर शील सत्य धारक और तपस्वी गुणकुशल हुए। फिर प्रतापकुशलजी बडे प्रतापी हुए, जिनका शाही दरबार में सम्मान था। ये चमत्कारी व वचनसिद्धिधारी थे। एक बार औरंगजेब को कोई सिद्धि की बात बतलाई जिससे उसने पालकी और फौज को भेज कर फरमान सहित बुलाया और मिल कर बड़ा खुश हुअा। ये हिन्दी और फारसी भाषा भी पढ़े थे। इन्होंने बादशाह के प्रश्नों के उत्तर समीचीन दिये तथा मन की बातें इष्ट के बल से बतलाई। बादशाह ने दस पाच गाँव दिये पर इन निर्लोभी गुरु के अस्वीकार करने पर पालकी देकर उन्हें विदा किया। इनके पट्ट पर कविराज "कनककुशल" हुए, जिन्हें महा बलवान् महाराज अजमाल व अजमेर का सूबेदार और अन्य राजा लोग मानते थे। नबाब "खानजहाँ" बहादुर तथा जूनागढ़ के सूबेदार बाबीवंशी शेरखान ने भी इनका बड़ा सम्मान किया। एकबार सारे यति एक ओर तथा ये एक अोर हो गये तो भी तपों के ६५ वें पाट पर इनके मनोनीत पट्टधर स्थापित किये गये। इन्हें राउल देसल के पुत्र कच्छपति लखा कुमार ने गाँव देकर अपना गुरु माना। इनका बहुत से विद्वान शिष्यों का परिवार था जिसमें "कुंअरेस" कवि को नृपति लखपति बहुत मानते थे। कच्छ नरेश के अाग्रह से कवि कुंअरेस ने यह "लखपत मंजरी" ग्रंथ बनाया। जैसा कि उपर्युक्त सार से स्पष्ट है कि कनककुशल और कुँअरकुशल दोनों गुरु-शिष्य कच्छ के रावल लखपत से बहुत सम्मानित थे। कनककुशल को लखपत ने एक गांव देकर अपना गुरु माना था। इस प्रसंग का वर्णन एक फुटकर पद्य में भी पाया जाता है। वह इस प्रकार है: महाराउ देसल वसंद पाटेत सहसकर, उभय पछ अाचार शुद्धसंग्राम सूरवर कलप वृछ कलि मांझि प्रगट जादौ पछिम पति, महिपति छत्रिय मुगट छत्रपति तनवह गुन गति । लखपति जु राउ लाखनि बकस, कियो कनक को श्रम सफल, सासन गजेन्द्र दीनो सुपिर, पद भट्टारक जुत प्रबल ॥ १ ॥ २ सिद्धान्त हुंडी के रचयिता ३ उपर्युक्त विवरण के अनुसार कनककुशलजी का प्रभाव पहले अजमेर जूनागढ़ आदि के शासकों पर था। कच्छभुज पीछे पधारे अत: यह प्रश्न उपस्थित होता है कि वे भुज कब आये ? क्योंकि यहाँ आने बाद तो राज्यसन्मान प्राप्त होने से अधिकतर यहीं रहने लगे ऐसा प्रतीत होता है। विचार करने पर यह समय सं. १८८० से ६० के बीच का शात होता है। लखपत का राज्यकाल १७६८ से १८१७ का है। कच्छ के इतिहासानुसार स्वर्गवास के समय उनकी आयु ४४ वर्ष की थी, अत: लखपत का जन्म सं. १७७३ होना चाहिये । हमीर कवि रचित यदुवंश वंशावलि सं. १७८० ही है। उसमें कुमार लखपत का उल्लेख है। राउल लखपत कुमार अवस्था में भी बड़े कला व विद्याप्रेमी थे। उनके रचित १ शिवव्याह एवं लखपत शृंगार ये दो ग्रन्थ है। कच्छ कलाधर में आप के रामसिंह मालम द्वारा उद्योग धन्धों व कला की हुई उन्नति का उल्लेख है। मीना व काच आदि के हुन्नर के लिये कच्छ देश सर्वत्र विख्यात है लिखा गया है। लखपत एवं कनककुशलजी के सम्बन्ध में कच्छकलाधर के पृ. ४३४ में लिखा है कि " महाराओ श्री लखपते कलानी माफक विद्याने पण खूब आश्रय आपेल छे। तेमणे पोते भट्टारकजी कनककुशलजी पासेथी वज्रभाषाना ग्रन्थोंनो सारो अभ्यास को हतो अने तेमनी ज देखरेख नीचे तेमणे जे व्रजभाषा शीखवानी हिन्दभरमा अजोड़ एने एक उत्तम प्रकारनी संस्थानी स्थापना करी छ। आ शाळा आज पण कच्छभुजमां हस्ति धरावे के अने दूर दूरी चारण बाळको पिंगल आदि शास्त्रोनो अभ्यास करवा अहीं आवे छे तेमने खोराकीपोसाकी सहित ब्रजभाषानुं शिक्षण आपवामां आवे छे। महाराओ श्री लखपत विद्वान होता छतां अत्यन्त विलासी हता।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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