Book Title: Bharatiya Shilpsamhita
Author(s): Prabhashankar Oghadbhai Sompura
Publisher: Somaiya Publications

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Page 13
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रस्तावना है। इसके अलावा ऐसे भी वीभत्स स्वरूप बहुत से स्थानों पर बनाये गये दिखाई देते हैं। बृहत्संहिता और पुराणग्रन्थों में 'मिथुनं पत्रवल्लीभिः प्रमथश्चोपशोभयेत् । द्वार में स्त्री पुरुषों के युग्मरूप-मिथुन-जोड़े बनाने का निर्देश है । अग्निपुराण में द्वारस्वरूप के वर्णन में लिखा है कि अधः शाखाचतुर्थांशे प्रतिहारो निवेशयेत् । मिथुनं रथवल्लीभिः शाखाशेषे विभूषयेत् ॥ प्रासाद के द्वारा की ऊँचाई के चौथे भाग पर प्रतिहार-द्वारपाल-का स्वरूप बनाकर उसे विशेष कल्पलता से अलंकृत करना चाहिये। तीसरी चौथी शताब्दी में गुप्तकाल में देवगढ़ के दशावतार कलामन्दिर के द्वार की शाखाएँ उपर्युक्त पाठ के अनुसार बनी हैं। मिथुन शब्द का अर्थ है स्त्रीपुरुष का जोड़ा। शिल्पियों ने उसका विपरीत अर्थ-मैथुन समझकर ऐसे अश्लील स्वरूप बनाये हैं, ऐसा मालूम पड़ता है। शिल्प के ऐसे स्वरूपों की रचना के पीछे लौकिक मान्यताएँ इस प्रकार भिन्न भिन्न हैं। . (१) सृष्टिसर्जनशक्ति का निरूपण करने के हेतु देवमन्दिरों में लोकलीला प्रदर्शित की जाती है। (२) देवमन्दिरों में ऐसे शिल्पों के देखने पर भी दर्शकों के चित्त चलायमान न हों तो समझना चाहिये कि वे सच्चे अधिकारी हैं। दर्शकों ... की मनोबल की इससे परीक्षा होती है। (३) वज्रपातारिभीत्यादिवारणार्थ यथोदितम् । शिल्पशास्त्रेऽपि मण्यादिविन्यासपौरुषाकृतिः॥ मन्दिरों में ऐसे बीभत्स स्वरूपों की रचना करने से उन पर बिजली पड़ने का भय नहीं रहता। ) सुन्दर मन्दिर की कृति पर किसी की नज़र न लग जाय इस हेतु से बीभत्स स्वरूपों की योजना की जाती है। युरोप में भी नये चर्च को किसी की नजर न लग जाय इस हेतु से वहाँ झाडू टाँग दिया जाता है। Kी वैराग्य भावना से दर्शकों को विमुक्त करने के हेतु भी ऐसे शिल्प किये जाते हैं। (६) शिल्पियों की कुतूहल वृत्ति के कारण ऐसे शिल्पों की योजना होती है। उड़ीसा के प्राचीन शिल्पग्रन्थ-शिल्प प्रकाश, अध्याय-२ : मिथुनबन्धः श्रृणु मिथुनबन्धाश्च कस्मिन्यत्रादिनिर्णयः । नानामिथुनबन्धा हि कामशास्त्रानुसारतः ॥ मुख्या हि केवलं केलि: न पातो न च संगमः । केलि: बहुविधा शास्त्र केवलं क्रीड़ा भाषिता ।। बुन्देलखण्ड के खजूराहो के समूहमन्दिरों में सुन्दर समुद्ध कला है। उसमें ऐसे कई स्वरूप कोरे गये हैं, उसके विषय में एक ऐसी मान्यता अथवा लोकोक्ति है कि 'हेमवती' नामक किसी रूपवती स्त्री ने चन्द्रमा के साथ कुछ दुर्बर्ताव किया, उसके प्रायश्चित्त के रूप में खजूराहो और सारे बुन्देलखण्ड के मन्दिरों में अश्लील मूर्तियों का सर्जन किया गया है। कलिंग-उडीसा के, भुवनेश्वर के समूहमन्दिरों में और जगन्नाथपुरी के विशाल मन्दिरों में तो उनके विस्तार में चार चार फूट ऊँचे बड़े चेष्टास्वरूप खड़े कर दिये हैं जो कि कलियुग के स्त्रीपुरुष व्यवहार की क्रियाबताते हैं। दर्शकों की पहली दृष्टि उस पर पड़े ऐसी जगह वे कोरे गये है। लोगों का कहना है कि उस जमाने में वाममागियों का प्राबल्य था। इस प्रदेश के प्राचीन शिल्पग्रन्थ 'शिल्पप्रकाश' में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि 'देवमन्दिरों में अश्लील स्वरूप का निर्माण करना ही चाहिये।' उत्तर भारत के किसी भी शिल्पग्रन्थ में ऐसी बात का उल्लेख नहीं मिलता। धंगारहास्यकरुण-वीर रौद्रभयानकाः । बीभत्साद्भुत इत्यष्टौ शान्तश्च नवमो रसः ।। शिल्परत्न, अ०३५ श्रृंगार,हास्य, करुण, वीर, रौद्र, भयानक, बीभत्स, अद्भुत और शान्त ये नवरस विशेष रूप से चित्रकला में होते हैं, उनमें से कुछ रस शिल्प में भी हैं। देवालय और शजालय में इन रसों का निरूपण कहा गया है। परन्तु युद्ध, स्मशान, करुण मृत्यु, दुःख, कल्पान्त, नग्नतपस्वी आदि अमंगल विषयों का आलेखन नहीं करना चाहिये ऐसा द्रविड़ के शिल्परत्नने कहा है, इसीलिये द्रविड़ देश में ऐसे स्वरूपों का पालेखन कम मात्रा में दिखाई देता है। केवल उत्तर भारत के देवमन्दिरों में ही अश्लील स्वरूपों का पालेखन मिलता है। यद्यपि द्रविड़ में शिव के ग्यारह स्वरूपों में भिक्षाटन समय का शिव का स्वरूप नग्न बताने के बारे में विधान मिलता है। वीतराग दिगम्बर की जैनमूर्तियाँ निर्वस्त्र-नंगी होती हैं, उनके क्षेत्रपाल के स्वरूप के विषय में लिखा है कि For Private And Personal Use Only

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