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viii
प्रस्तावना
प्रकाश-विकास का काल है। उस समय की मूर्तियों पर अशोक के समय का गहरा असर है। नागभार के बाद वाकाटकों का राज्यकाल है, उसके बाद नि.३००से ६०० तक का जो गुप्त राज्यकाल है, उसमें भारतीय कलादृष्टि का सर्वोत्तम विकास हुआ है। गुप्तकालीन शिल्पियों की अद्भुत शिल्पकृतियों में सांगोपांग रमणीयता, मधुरता,सुरूपता आदि जो आकर्षक सद्गुण थे, उनका दर्शन आज भी प्राचीन अवशेषों में होता है इसीलिये गुप्तकाल को सुवर्णकाल कहा जाता है।
विद्वान लोग गुप्तकाल के बाद के स्त्रि. ६००से ९०० तक के युग को पूर्व-मध्यकाल कहते हैं। उस समय में कन्नौज का सुप्रसिद्ध राजा हर्षवर्धन हो गया। चीनी यात्री हयुअानस्तांग उसी अरसे में भारत आया था। गुप्तकाल का असर उनके प्रस्तकाल के बाद भी करीब दो तीन सौ साल तक रहा । त्रि. ९०० से १३०० के उत्तर मध्यकाल में भुवनेश्वर, कोणार्क, खजूराहो, मालवा के परमारप्रासाद, और कलचुरी राजाओं ने इस मूर्तिकला को अच्छी तरह परिपुष्ट किया है। गुजरात, राजस्थान के चौहाण, राठोड,सोलंकी, परमार आदि राजवंशों ने अपने अपने राज्यकाल में उसको काफी प्रोत्साहन एवं उत्तेजन दिया है।
तामिलनाडु के पाण्ड य, चौल, पल्लव राजाओं ने तथा कर्नाटक के होयशाल राजवंशों ने एवं आन्ध्र के राजवंशों ने बड़े बड़े प्रासादों कामहलों का निर्माण करवाया। इतना ही नहीं भारत के प्रत्येक प्रदेश में विशालकाय महाप्रासादों का निर्माण हुआऔर अद्भुत मूर्तियों का भी सृजन हुअा। उत्तरमध्यकाल के बाद ख्रि. चौथी शताब्दी से लेकर बारहवीं शताब्दी तक कला को ठीक ठीक उत्तेजन मिलता रहा।
ख्रि. ९०० से १३०० तक का समय मध्यकाल कहा जाता है। उसके बाद शिल्पियों की कृतियाँ प्रौढावस्था से निकलकर वृद्धावस्था में प्रविष्ट हो गईं। इस काल के प्रारम्भ के पहले इलोरा में एक पहाड में से भव्य विशाल मन्दिर का निर्माण हुआ,जो कि भारतीय स्थापत्यों में एक आश्चर्यरूप है, भारत की ज्यादातर गुफाएँ उस समय के कुछ पहले या कुछ पीछे देश के भिन्न भिन्न विभागों में बनी हैं।
चौदहवीं शताब्दी के अर्वाचीन काल तक के विधर्मियों के आक्रमण और उनके राज्यशासनकाल के कारण कला का हास होता गया, इसके लिये मूर्तिभंजक विधर्मी लोग जबाबदार हैं। प्राचीन कलामय स्थापत्य का विनाश उत्तरभारत में विशेष हुअा, कला का विकास रुक गया अथवा यों कहिये मन्द पड़ गया।
विधर्मी लोग जहाँ जहाँ स्थायी रूप से रह गये, वहाँ वहाँ हिन्दुस्थापत्यों का विनाश हुअा है। उनके अवशेषों में से विर्मियों ने अपनी मनपसंद मस्जिदें, मकबरे और दरगाह आदि स्थान खड़े कर दिये हैं। यह स्थिति विशेष रूप से केवल उत्तरभारत में हुई, दक्षिण भारत में ऐसा प्रायः नहीं हुआ है। परिणामस्वरूप वहाँ कुछ अंश में कला जीवित रह सकी है हालां कि कला का विकास तो वहाँ भी रुक गया है।
कला के विनाश को रोकने के लिये पश्चिम भारत के-गुजरात, राजस्थान, मेवाड प्रदेश के-सोमपुरा शिल्पियों,कलिंग,ओरीसा-पूर्वभारत के महाराणा (महापात्र) शिल्पियों, द्रविड़ प्रदेश के प्राचार्य शिल्पियों, मध्य प्रदेश के खजूराहो समूहमन्दिरों के शिल्पियों एवं कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश के शिल्पियों ने मृतप्राय बनी भारतीय शिल्पस्थापत्य कला को जीवित रखने का पूरा प्रयास किया है, उसकी सराहना करनी चाहिये।
खजूराहो शिल्पियों के वंशजों का पता नहीं है, न मालूम उन्होंने धर्मान्तर कर लिया अथवा वे किसी अन्य प्रवृत्तियों में पड़ गये। बाकी के उपर्युक्त शिल्पियों के पास कला के हस्तलिखित ग्रन्थों का संग्रह है, कुछ तो उसके आधार पर मन्दिर निर्माण करते हैं।
१४ वीं, १५वीं शताब्दियों में हिन्दु राजाओं ने अपने अपने प्रदेशों में धर्मस्थान खड़े किये, इससे मूर्तिकला को उत्तेजन मिलता रहा। ईसा के पूर्व के वर्षों से आज तक कालानुसार उसमें कमीबेशी जरूर हुई है, किसी समय भावनिदर्शन में ओजस आया तो किसी समय उसमें सौन्दर्य तत्त्व का हृास हुअा; फिर भी धर्म के प्रभाव के कारण कला का आजतक विशेष प्रचार-प्रसार हुआ है, हो रहा है यह सौभाग्य की बात है।
मुस्लीमों के छःसौ वर्ष के राज्यशासनकाल के बाद अंग्रेजी राज्यशासनकाल में कला का हास भले ही रुक गयाहो, पर उसकारूप कुछ बदल गया है। वह रूप श्रेष्ठ है या नेष्ट यह एक प्रश्न है। वर्तमान काल में भारतीय कलाकृति के प्रति देशविदेशों में जो अभिरुचि बढ़ती जा रही है यह बड़े हर्ष की बात है।
___ साथसाथ एक दुःख की बात भी है कि फिलहाल शिल्प, स्थापत्य और चित्र इन तीनों कलाओं में पश्चिम का अनुकरण करनेवाले, पश्चिमी शिक्षादीक्षा से दीक्षित कुछ भारतीय स्थपति और कलाकार भारतीय कलाओं को विकृत रूप दे रहे हैं । वे लोग वास्तव में शिल्प, स्थापत्य और चित्र इन तीनों प्रकार की कलाओं के विकास के नाम पर विनाश कर रहे हैं। अभी अभी कुछ तीसेक वर्षों से कलाविहीन भवनों का ताश के पत्तों के महल की तरह, पक्षियों की घोंसले की तरह निर्माण कर के धनवानों को मूर्ख बना रहे हैं। उसी तरह किसी लकड़ी के ठूठ को कल्पनानुसार प्राकृति देकर अपने शिल्प की वाहवाह करवाते हैं, जिसका कोई अता-पता नहीं होता। टेढामेढा गाढा लेप इधरउधर लगाकर चित्र बनाते हैं, जिसका कोई अर्थ नहीं निकलता, जिसके मुंहमाथे का पता नहीं चलता, उसकी काफी प्रशंसा की जाती है। बड़े दुःख के साथ कहना पड़ता है कि यह हास्यास्पद बात है। ऐसा वर्ग दूसरों को पागल बना रहा है, जब कि पश्चिम के देश हमारी इस प्राचीन कलाकृतियों का आदर करते हैं। हमारे भारतीय पश्चिम का अन्ध अनुकरण करके देश की कला का सत्यानाश कर रहे हैं, 'मॉडर्न पार्ट' के नाम पर अपने आपको धोखा दे रहे हैं, यह देखकर घृणा पैदा होती है-दुःख होता है। है जिस कला को दूर से देखते ही प्रेक्षक उसका पूरा रहस्य समझकर अानन्दविभोर हो जाये वही असली कला है। घृणाजनक
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