Book Title: Bharatiya Shilpsamhita Author(s): Prabhashankar Oghadbhai Sompura Publisher: Somaiya Publications View full book textPage 9
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रस्तावना शिल्पीवर्ग में मूर्तिशास्त्रसम्बन्धी इस विषय की अच्छी तरह से छानबीन नहीं हुई है, उसके शास्त्रीय पाठों एवं प्रालेखनों के साथ ग्रन्थ का पूर्वार्ध यहाँ पेश किया गया है। ग्रन्थ दो विभागों में है। उत्तरार्ध में देवमूर्तिविषयक विवेचन है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश-त्रिपुरुष, उनके पृथक् पृथक् स्वरूप, शिवलिंग, दैवीशक्ति, सप्तमातृकाएँ, नवदुर्गाएँ, गौरीस्वरूप, द्वादश सूर्य, गणेशस्वरूप, कार्तिकस्कन्द, हनुमत्स्वरूप, दिक्पाल, नवग्रह, अन्तिम जैन प्रकरण में यक्ष, यक्षिणी, षोडश विद्यादेवियाँ, परिकर, अष्ट प्रतिहार्य, मणिभद्र, घण्टाकर्ण, क्षेत्रपाल, पद्मावती, माणेकस्तम्भ आदि के मूल संस्कृत पाठ, अनुवाद एवं पालेखनों के साथ दिया गया है। शिल्प के सुन्दर पालेखन और प्राकृतियाँ वर्गवार पृथक् पृथक् दिये गये हैं। ये सारी बातें शिल्पीवर्ग एवं कलारसिकों को अभ्यास में उपयोगी होंगी ऐसा मैं मानता हूँ। . प्रासाद में प्रतिमामान प्रासाद के मान के अनुसार आसनस्थ-बैठी एवं ऊर्ध्वस्थ-खड़ी प्रतिमानों का मान निम्नानुसार है। प्रतिमामान बैठी खड़ी प्रतिमामान মাল अंगुल अंगुल बैठी अंगुल m Fory १८ ४२ ५२ ६२ 06 mm or m वैदिक, जैन, बौद्ध आदि सम्प्रदायों में मूर्ति-प्रतिमानों के प्रकारभेद होने के कारण मूर्तिविधान के स्वरूपों में भी भेद पाया जाता है। प्रत्येक सम्प्रदाय की अपनी मूर्तियाँ प्रायः एक सी होती हैं, फिर भी देशकाल के भेद के अनुसार उनके स्वरूपनिरूपण के बारे में कुछ भेद दिखाई देता है। प्रादेशिक परंपराओं के अनुसार शिल्पविधान में शैलीभेद का होना स्वाभाविक है। (१) यानक-वाहन पर बैठी हुई मूर्ति, (२) स्थानक-स्थान पर खड़ी मूर्ति, (३) प्रासन-बैठी हुई मूर्ति और (४) शयनजलशायी विष्णु अथवा बुद्धनिर्वाण जैसी सोयी हुई मूर्ति, इस प्रकार सामान्य रूप से मूर्तियों के चार भेद हैं। मूर्ति-प्रतिमा निर्माण के लिये पुराणों में और अन्य ग्रन्थों में कहीं सात और कहीं नव वास्तुद्रव्यों का उपयोग करना बताया गया है। (१) सोना, (२) चाँदी, (३) ताँबा, (४) काँसा, (५) सीसा, (६) अष्टलोह, ये छः धातुद्रव्य हैं। (१) रत्न, (२) स्फटिक, (३) प्रवाल और (४) पाषाण ये चार रत्नादि द्रव्य हैं। (१) काष्ठ, (२) लेप, (३) बालू, (४) मृत्तिका और (५) कंकरी ये पाँच फुटकर द्रव्य हैं और (१) चिन-फोटू, इस प्रकार सोलह (१६) मूर्तिनिर्माण द्रव्यों का विधान विभिन्न ग्रन्थों में लिखा मिलता है। प्रतिमा बनाना बिल्कुल ही निषिद्ध है। अष्टलोह में पंचधातु के साथ सोना, चांदी और तांबे के रस का मिश्रण किया जाता है। क्षणिक पूजन के लिये मृत्तिका की मूर्ति का विधान है, पूजन हो जाने के बाद उस मूर्ति का जल में विसर्जन कर दिया जाता है, श्रावण मास में इस प्रकार शिवलिंगोंकी पार्थिव पूजा होती है। मन्दिरों में स्थायी मूर्ति और भोगमूर्ति इस प्रकार देवताओं की दो मतियाँ होती हैं। स्थायी मूर्ति स्थिर रहती है तो भोगमूर्ति चलित रहती है, वह उत्सवों में रथ पर स्थापित की जाती है। पूजनीय मूर्ति-प्रतिमाओं के चेहरे पर यौवन के सुन्दर भावों का होना जरूरी है। चेहरा हमेशा हँसता-प्रसन्न दिखाई देना चाहिए। काली, महिषासुरमर्दिनी, हिरण्याक्ष आदि की रौद्रमूर्तियों में रौद्रभाव व्यक्त होना जरूरी है। वैसे तो, श्रृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, बीभत्स, अद्भुत और शान्त ये नब भाव कहे गये हैं, परन्तु इनकी अभिव्यक्ति चित्रकर्म और नाटयकर्म के लिये विशेष उपादेय है। इनमें से कुछ भाव शिल्पकर्म में लिये जा सकते हैं, ऐसा विधान 'समरांगण सूत्रधार' ग्रन्थ में मिलता है। इस ग्रन्थके पूर्वार्ध के वोदहवें अंगमें उन्नीस देवानुचर असुरादि स्वरूप बताये हैं, उन सब की प्रतिमाएँ बनती थीं। प्रासाद के गर्भगृह के किस विभाग में किस देव की मूर्ति की स्थापना करनी चाहिये यह कहा गया है, उसमें भूतप्रतिमा का स्थान बताया गया है। इससे यह अनुमान होता है कि प्राचीनकाल में ऐसी मूर्तियाँ बनती होंगी। भूतमानव भगवान शंकर को पुराणकारों एवं तंत्रकारों ने भूतेश, भूतनाथ आदि नामों से सम्बोधित किया है। प्रमथ' शब्द भूत का पर्यायवाचक होने के कारण संस्कृत के कवियों ने शिवको 'प्रमथनाथ' भी कहा है। भूत का तीसरा अर्थ 'गण' भी होता है। वर्तमान काल में उनके स्वतंत्र मन्दिर नहीं है, लेकिन उनकी मूर्तियाँ अवश्य मिलती हैं। द्रविड़-कर्नाटक ग्रन्थों में प्रासाद के द्वार पर, अधिष्ठान में कपोतिका में, झरोखे के नीचे और शिखर के स्कन्ध पर भूतस्वरूपों का स्थान बताया है। उनके स्वरूप के बारे For Private And Personal Use OnlyPage Navigation
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