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में लिखा है कि वह मस्त, जटावाला, अल्पकेशी, बड़े पेटवाला और वामन-ठिंगना होना चाहिये। कुछ के मुहँ बिडाल, व्याघ्र, हाथी
आदि प्राणियों के समान हों और उनके चेहरे पर हास्य, क्रीडा, विस्मय, बीभत्स आदि के भाव हों। भूतबलि का प्राणवान स्वरूप बनाने को कहाँ गया है । द्रविड़ मन्दिरों के ऊपर स्कन्ध के कोने में वृषभ स्वरूपों की बदली में कहीं कहीं भूत के स्वरूप भी दिखाई देते हैं, हालांकि ऐसा प्रायः पुराने मन्दिरों में ही देखा गया है, कर्नाटक शिल्प में भी कहीं इसका संकेत मिलता है। भुवनेश्वर के राजरानी मन्दिर के शिखर के स्कन्ध के चारों हिस्सों में मध्य में भी घुटनों को मोड़कर आधे खड़े हुए और शंख फूंकते भूतस्वरूप दिखाई देते हैं। इस भूत-प्रमथ-गण के बारे में द्रविड़ बास्तुग्रन्थों में विवरण मिलता है। उत्तरीय परंपरा में इस विषय का कोई जिक्र नहीं है। शैवागम-चन्द्रदमन में छ: भूतनायक कहे हैं तो वास्तुशास्त्र विश्वकर्मा में नव भूतनायकों के नाम, स्थान और तत्त्वों का निरूपण मिलता है। वे इस प्रकार हैं: (१)उपामोद-पूर्व में पृथ्वी तत्त्व, (२) प्रमोद-दक्षिण में अग्नितत्त्व, (३)प्रमुख-पश्चिम में जलतत्त्व, (४) दुर्मुख-उत्तर में वायुतत्त्व, (५) अविघ्न-अग्निकोण में प्राकाशतत्त्व, (६) सत्त्व-अग्निकोण में, (७) रजस्-नैऋत्य कोण में, (८) तमस्-वायव्य कोण में, (९) विघ्नहर्ता-ईशान कोण में । ये स्वरूप प्रायः शिवमन्दिरों में ही होते होंगे। (१) ऋषि, (२) हनुमान्, (३) क्षेत्रपाल, (४) यक्ष, (५) पितृ, (६) नाग और विद्याधर, गन्धर्व, किन्नर आदि के स्वरूप देवों के परिकर माने जाते हैं। वे देवमूर्ति के ऊपर के हिस्से में अलंकार के रूप में अंकित होते हैं। किसी देवघर के शिल्प में असुर, दानव, वैताल, राक्षस, प्रेत, पिशाच, शाकिनी के स्वरूप उनकी कथाओं के साथ अंकित किये मिलते हैं। जैनियों में यक्ष, यक्षिणियों के स्वरूप बहुत पूजे जाते हैं। नागरादि शिल्प में देवलोक, स्वर्ग, अप्सरात्रों के बत्तीस स्वरूप उनके लक्षणों के साथ दिये हैं। पूर्वभारत के कलिंग, उड़ीसा के शिल्पग्रन्थों में उनके सोलह स्वरूपलक्षण बताये हैं। उसमें अन्त में शिल्पकृति में शिल्पालंकार के रूप में (१) कीर्तिमुख, (२) नाग, (३) ग्रास, (४) मकर, (५) व्याल ये पाँच स्वरूप दिये हैं।
(यह श्री. मधुसूदनभाई ढाकी के 'भूतनायक' लेख पर आधारित है।) भारत में हजारों वर्षों से मूर्तिपूजा है, उसी प्रकार मीसर, बाबीलोन, एसीरिया, पशिया, प्रारब, ग्रीस, इटली आदि युरोपीय देशों में तथा चीन, जापान, रूस आदि एशियाई देशों में अनेक देव-देवियों को माननेवाले लोग थे, पीछे उस स्थिति में कुछ परिवर्तन अवश्य हुआ है।
___ मनुष्य को स्वाभाविक रूप से एक मुँह और दो हाथ होते हैं, जब कि देवों के बारे में मनुष्य से अधिक अंगों की कल्पना की गई है। कुछ देवों के एक से अधिक मस्तक एवं दो से अधिक हाथ बनाये हैं। हिन्दुशास्त्रों में चार, छ:, पाठ, दस या बीस भुजाओंवाली देवदेवियों की मूर्तियों का उल्लेख है। मनुष्य के मुंह की जगह सिंह, सूअर, घोड़ा, बैल, बन्दर आदि के मुँह बनाये गये हैं। मीसर, बाबीलोन, एसीरिया
और पशिया में भी ऐसे प्रकार की प्राकृतियों के भव्य स्वरूप आज भी मिलते हैं। इजिप्त में स्फिक्स' नामक मूर्ति का मुँह मनुष्य का और शरीर सिंह का है, पत्थर की बनी यह मूर्ति तीन सौ फीट लम्बी है। मीसर और पशिया में दो-तीन हजार वर्ष पहले की ऐसी प्राचीन मूर्तियाँ हैं, जिनका मुँह तो मनुष्य का है, लेकिन शरीर बैल का है। पहले मीसर के विभिन्न प्रान्तों में देवदेवियों के स्थान पर प्राणियों की पूजाहोती थी। देवमूर्तियों की शक्ति और उनका स्वभाव बनाने के लिये विशेष भुजाओं के स्वरूप की कल्पना की गई होगी। आयुधों के बारे में भी ऐसाही होना चाहिये। कुछ देवदेवियों के आयुध उग्र-भयंकर हैं, कुछ के आयुध सात्त्विक हैं । ये भुजाएँ और आयुध उनके स्वभाव और गुण के प्रदर्शक हैं। उनके विशेष मस्तकों के बारे में ऐसे ही कुछ कथानक पुराणों में मिलते है।
मौर्य राज्यकाल (ईसा से पूर्व ३२५ से १८४) में जो प्रथम चन्द्रगुप्त हुआ, उसके दरबार में ग्रीक राजदूत मेघेस्थिनिस ने उस समय की स्थिति का वर्णन किया है। पाटलीपुत्र में चन्द्रगुप्त का जो भव्य राजमहल था, वह एशियाभर में सर्वश्रेष्ठ था और गुप्तकाल के अन्त तक वह था। चन्द्रगुप्त का पौत्र अशोक (स्विस्ताब्द २१३ ते २३२) संसारभर में महापुरुष माना गया। वह स्वयं बौद्धधर्मी होने पर भी अन्य सम्प्रदायों के प्रति पूरा सहिष्णु था। वह हमेशाप्रजा के कल्याण की चिन्ता किया करताथा। प्रजा के हित के खातिर उसने पर्वतीय शिलाखण्डों पर ब्रह्मी लिपि में नीतिसूत्र खुदवाये थे । देश के अलग अलग स्थानों पर रौनकदार बड़े बड़े स्तम्भ, राजा की आज्ञा उनमें खुदवाकर खड़े करवाये थे। अनेक बौद्धस्तूप, विहार, चैत्य-स्तम्भ और गुफाओं में नक्क्षी का काम करवाया था। उसके बाद के राजाओं ने भी देश के विभिन्न भागों में अनेक विशाल गुफाएँ कला से सजाई थीं और अनेक स्तूप बनवाये थे।
शुंगकाल (धि. पू. १८८ से ५०) के बाद कुशाणकाल इसपूर्व ५० से इस ३००) में प्रतिमाविधान में मथुराशैली एवं गान्धारशैली का विशेष प्रचार हुआ है। सरहद प्रान्त-उत्तर पंजाब के अगलबगल के प्रदेश में प्रतिमाविधान में गान्धार शैली और उत्तर भारत में मथुराशैली विशेष रूप से प्रचलित है।
गान्धारशैली, बौद्ध सम्प्रदाय के मूर्ति विधान में स्पष्ट दिखाई देती है। धि.पू. ३०० से ५० तक पत्थर और चूने की मूर्तियाँ बनती थीं। उनमें तादृशता एवं सप्रमाणता विशेष रूप से पायी जाती है। उन मूर्तियों में धुंघराले बाल होते हैं। इस गांधारशैली पर बाहरीयूनानी असर पड़ा है और वह भारतीय मूर्तिविधान के असर से बिल्कुल मुक्त है ऐसा कुछ पाश्चात्य विद्वान मानते हैं। जब कि डॉ.हावेल, डॉ. जयस्वाल, डॉ. कुमारस्वामी, डॉ. अग्रवाल जैसे समर्थ पुरातत्त्वज्ञों का मत है कि गान्धारशैली भारतीय मूर्ति कला से ही सम्बद्ध है यह बिल्कुल सिद्ध है। उस प्रदेश के उस काल के सभी शिल्पियों की यही शैली थी, ऐसी स्थिति में उसे बाहर की कला कैसे कही जा सकती है?
मथुराशैलीः कुशाणकाल की मथुराशैली के मूतिविधान का केन्द्र मथुराथा। शुंगकाल की कलाही कुशाणों का राज्याश्रय पाकर मथुराशैली बन गई ऐसा कुछ लोग मानते हैं। कुशाणकाल के बाद नागभार वाकाटक काराज्यकाल पाता है, इस १८६ से ३२० वही इस शैली का
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