Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy

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Page 11
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ मकारादि मल्लिका (नेवारी), असगन्ध और मोचरसके मूर्वा यष्टिरयं काथो दाहं मूछी तृषां भ्रमम् । काथसे धोनेसे योनिकी शिथिलता नष्ट हो जातो है। रक्तपित्तज्वरं हन्ति निपीतो मधुना सह ।। (४९९०) मदयन्तिकामूलकषायः । मुलैठी, दालचीनी, कूठ, नीलोत्पल, लालच(ग नि. रक्तपित्ता. ८) | न्दन, बच, हर्र, बहेड़ा, आमला, धमासा, वासा, मदयन्तिकमूलस्य कषायः पूतशीतलः। - मुनक्का, सिरसकी छाल, पद्माक, मूर्वा और मुलैठी शर्करामधुसंयुक्तो रक्तपित्तप्रणाशनः ॥ समान भाग लेकर काथ बनावें। ____ मदयन्तिका ( मल्लिका ) की जड़के काथको । इसमें शहद मिलाकर पीनेसे दाह, मूर्छा, छानकर ठण्डा करके उसमें खांड और शहद मिला- तृषा, भ्रम, रक्तपित्त और ज्यरका नाश होता है । कर पीनेसे रक्तपित्त नष्ट होता है। (४९९४) मधुकादिक्वाथः (१) (४९९१) मधुकादिकषायः (१) (भै. र. ज्वरा.) (ग. नि. ज्वरा. १) | मधुकं गुडूची तिक्ता एला पर्पटकं तथा । मधुकं त्रायमाणां च पिप्पलीमूलमेव च ।। प्रत्येक शाणमानेन तिक्ताया अर्द्धशाणकम् ॥ किराततिक्तकं मुस्तं पर्पटं सबिभीतकम् ॥ सार्धतोलकमेवश्च स्वर्णपत्र्याच ग्राहयेत् । सशर्कर पीतमेतत्पित्तन्वरनिबर्हणम् ॥ मत्स्याण्डिकायास्तोलश्च प्रक्षिप्य पाययेद्भिषक् ॥ ___मुलैठी, त्रायमाना, पीपलामूल, चिरायता, नाग- वातपित्तज्वरं घोरं नाशयेन्नात्र संशयः । रमोथा, पित्तपापड़ा और बहेड़ा समान भाग लेकर रसायनकते चापि ज्वरो यश्च न हीयते ।। काथ बनावें। इसमें मिश्री डालकर पिलानेसे पित्त- ज्वरं नाशयेदेतद वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा ॥ ज्वर नष्ट होता है। मुलैठी, गिलोय, कुटकी, इलायची और पित्त(४९९२) मधुकादिकषायः (२) । पापड़ा ५-५ माशे; कुटकी २॥ माशे और सनाय ( वृ. नि. र. जीर्णज्वरा.; व. से. ज्वरा.) | १॥ तोला लेकर काथ बनावें। मधुकारग्वधद्राक्षातिक्ताया सफलत्रिकैः।। सपटोलैर्जलं भेदि ज्वरं इन्ति त्रिदोषजम् ॥ । इसमें १ तोला खांड मिलाकर पिलानेसे मुलैठी, अमलतास, मुनक्का, कुटकी, त्रिफला | भयंकर वातपित्तज्वर अवश्य नष्ट हो जाता है । और पटोल पत्रका काथ पीनेसे मल निकल जाता जो ज्वर रसायन प्रयोगांसे भी नहीं मिटता है और सन्निपातञ्वर नष्ट होता है. वह इससे अवश्य नष्ट हो जाता है। (४९९३) मधुकादिकषायः (३) (४९९५) मधुकादिकाथा (२) (वृ. नि. र. जीर्णज्वर.) (भै. र. ज्वरा.) मधुकं वल्कलं कुष्ठमुत्पलं चन्दनं वचा। मधुकं चन्दनं मुस्तं धात्री धान्यमुशीरकम् । त्रिफला दुर्लभा वासा द्राक्षा शिरीषं पद्मकम् ॥ छिन्नोद्भवं पटोलश्च क्वाथः समधुशर्करः । For Private And Personal Use Only

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