Book Title: Bhaktamar Katha
Author(s): Udaylal Kasliwal
Publisher: Jain Sahitya Prasarak karyalay

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Page 12
________________ मंगल और कथावतार। यदि वे अपने विद्या-बलसे मुझे कुछ आश्चर्य दिखला सकेंगे तो मैं अवश्य उनका सम्मान करूँगा और उन्हें सर्वश्रेष्ठ समझूगा । ___ मंत्रीने उत्तर दिया-महाराज ! मेरे गुरु सदा आत्म-कल्याणमें लगे रहते हैं । वे बड़े दयालु हैं । छोटे बड़े सब जीवों पर उनकी एकसी दया है; और इसी लिए वे मंत्र-तंत्रादिके द्वारा किसीको कष्ट देना अच्छा नहीं समझते । पर वे सब जानते हैं। यदि आपकी ऐसी ही आज्ञा है कि वे कुछ अपना प्रभाव दिखलावें, तो अच्छी बात है । मौका मिलने पर मैं आपकी आज्ञाका अवश्य पालन करूँगा। __ इसी अवसरमें श्रीमानतुंग मुनिराज, जो कि अपने निर्मल चारित्रसे संसारको पवित्र कर रहे थे, विहार करते हुए उधर आ निकले । मतिसागर मुनिराजका आगमन सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ । वह उनकी वन्दनाके लिए वनमें गया। वहाँ उनके दर्शन कर उसने पवित्र धर्मोपदेश सुना। इसके बाद मुनिराजसे उसने प्रार्थना की कि प्रभो! यहाँके राजा भोज बहुत बुद्धिमान् हैं, पर वे जैनधर्मसे बिल्कुल अनभिज्ञ हैं। इसलिए कालिदास वगैरह पंडित अपने पाण्डित्यके अभिमानमें आकर सदा जैनधर्मकी निन्दा किया करते हैं। वह मुझसे नहीं सही जाती । आप उसके लिए कुछ उपाय कीजिए, जिससे जैनधर्मकी प्रभावना हो और राजाको जैनधर्म पर विश्वास हो। मानतुंगस्वामी मंत्रीका सब अभिप्राय जानकर राजसभामें गये और उन्होंने राजासे कहा-राजन् ! जैनधर्मके सम्बन्धमें आपको जो भ्रम है उसे निकाल डालिए । मैं सब तरह आपकी समझौती करनेको तैयार हूँ। यह देख, राजाने उनकी विद्याकी परीक्षा करनेके लिए मुनिराजको लोहेकी अड़तालीस साँकलोंसे ख़ब मजबूत जकड़वा कर और भीतरके तलघरकी कोठड़ियोंमें बन्द कर सब पर मजबूत ताले लगवा दिये ।

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