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है भैरव पद्मावती कल्प
भा० टी०-काले बिलावकी दाहिनी जांघ की हड्डो लेकर कमरमें बांधनेसे वीर्य स्तम्भन होता है।
वीर्यस्तम्भक दीपक कपिलाघृतेन बोधितदीपः सुरगोपचूर्णसम्मिलितः। स्तंभयति पुरुषबीय रत्यारम्भे निशास्त्रमये ॥ २७ ॥ भा० टी०-कपिला गौके घीसे जलाया हुआ और इन्द्र- ' गोपके चूर्णखे युक्त दीपक रानिमें रतिके समय पुरुषके वीर्यका स्तम्भन करता है।
द्रावण लेप टंकणपिप्पलिकामासूरणकपूरभातुलिंगरसैः ।
कृत्वात्मांगुलिलेपं कुरुते स्त्रीणां भगद्रावम् ।। २८ ।। भा० टी०-सुहागा, पोपल, जसीचन्द, कपूर और बिजौरेके रससे अपनी अगुठीको लेप करनेसे स्त्रियों का भग द्राव होता है।
द्यूत तथा वादविजय मूल मूल श्वेतापमागस्य कुवेरदिशि सस्थितम् ।
उत्तरात्रितये ग्राह्यं शोषस्थं द्यूतवादजिद ।। २९ ।। भा० टी०-सफेद चिरचिटेकी जड़को उत्तर दिशामेंसे उत्तरफाल्गुणि, उत्तराषाढ़ या उत्तराभाद्रपद नक्षत्रमें उखाड़ कर शिर पर रखे तो द्यूत और बादमें विजय पावे।
रतिदायक लेप अग्न्या वर्तितनागे हरवीर्य निक्षिपेत्ततो द्विगुणम् । मुनिकनकनागसर्पज्योतिष्मत्यतसिभ्यां च ॥ ३०॥ . .