Book Title: Bhagwan Mahavir Prati Shraddhanjaliya
Author(s): Jain Mitramandal Dharmpur
Publisher: Jain Mitra Mandal

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Page 21
________________ "कन कर्माणि लोकस्य अति प्रभुः । न कर्म फलसंयोग स्वभावस्तुप्रवर्तते ।। नादत्तं कस्यचित्पापं न कस्य सुकृतं विभुः । पक्षानेनावृतं शानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः' ।।" -श्रीकृष्ण नीः श्रीमद्भागवदगीता । ऐसा कहने वाले श्री कृष्ण जी को भी नास्तिकों में गिनना पड़ेगा। आस्तिक और नास्तिक यह शब्द ईश्वर के अस्तित्वसम्बन्ध में व कतृ त्वसम्बन्ध में न जोड़कर पाणिनीय ऋषि के सूत्रानुसार "परलोकोऽस्तोति मतिर्यस्यास्तीति प्रास्तिक: परलोको नास्तिती मतिर्यस्यास्तोति नास्तिक: ।" श्रद्धा करें तो भी जैनी नास्तिक नहीं हैं। जैनी परलोक स्वर्ग, नर्क और मृत्यु को मानते हैं इस लिये भी जैनियों को नास्तिक कहना उचित नहीं है। यदि वेदों को प्रमाण न मानने के कारण जैनियों को नास्तिक कहो तो क्रिश्चन, मुसलमान, बुद्ध आदि भी 'नाग्तिक' की कोटि में आ जायेंगे । चाहे आस्तिक व नास्तिक का १. परमेश्वर जगत का कर्ता या कर्मों का उत्पन्न करने वाला नहीं है। कमों के फल की योजना भी नहीं करता । स्वभाव से सब होते हैं। परमेश्वर किसी का पाप या पुण्य भी नहीं लेता। अज्ञान के द्वारा शान पर पर्दा पड़ जाने से प्राणी मात्र मोह में पड़ जाता है। २. परलोक है ऐसी जिसकी मान्यता है वह आस्तिक है । परलोक नहीं है. ऐसी जिसकी मति है वह नास्तिक है। ३. (6) 'देष्टिकास्तिक नास्तिकः-शाकटायनः वैयाकरण ३-२-६१ (ii) 'अस्ति परलोकादि मतिरस्य आस्तिकः तदिपरीतो नास्तिक' -अभयचन्द्र मरि (ii) 'अस्ति नास्तिदिष्टं मतिः' -पाणिनीय व्याकरण ४-४-६०. [ ११७

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