Book Title: Bhagwan Mahavir Prati Shraddhanjaliya
Author(s): Jain Mitramandal Dharmpur
Publisher: Jain Mitra Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 83
________________ कर उतना ही अधिक सन्तोष, सुख और शान्ति की प्राप्ति होती है। ४. अन्तराय-जो दूसरों के लाम को देख कर जलते है, दान देने में रुकावट डालते हैं, उन को अन्तराय कर्म की उत्पत्ति होती है। जिस के कारण वह महा दरिद्री और भाग्यहीन होते हैं। जो दूसरों को लाभ पहुंचाते हैं, दान करते कराते हैं, उन का अन्तरायकर्म ढीला पड़ कर उन को मन-बांछित्त सुख-सम्पत्ति की प्राप्ति बिना इच्छा के आप से आप हो जाती है। ५. श्रायुकर्म-जिस के कारण जीव देव, मनुष्य, पशु नरक चारों गतियों में से किसी एक के शरीर में किसी खास समय तक रुका रहता है। जो सच्चे धर्मात्मा, परोपकारी और महासन्तोषी होते हैं, वह देव आयु प्राप्त करते हैं। जो किसी को हानि नहीं पहुँचाते, मन्द कषाय होते हैं, हिंसा नहीं करते वह मनुष्य होते हैं। जो विश्वासघाती और धोखेबाज होते हैं पशुओं को अधिक बोझ लादते हैं, उनको पेट भर और समय पर खाना पीना नहीं देते, दूसरों की निन्दा और अपनी प्रशंसा करते हैं वह पशु होते हैं जो महाक्रोधी, महालोभी, कुशील, होते हैं झूठ बोलते और बुलवाते हैं, चोरी और हिंसा में आनन्द मानते हैं, हर समय अपना भला और दूसरों का बुरा चाहते हैं, वह नरक आय का बन्ध करते हैं। . ६. नामकर्म-जिस के कारण अच्छा या बुरा शरीर प्राप्त होता है । जो निग्रंथ मुनियों और स्यागियों को विनयपूर्वक शुद्ध आहार कराते हैं, विद्या, औषधि तथा अभयदान देते हैं, मुनिधर्म का पालन करते हैं, उनको शुभ नाम कर्म का बन्ध हो कर ३६६ ]

Loading...

Page Navigation
1 ... 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94