Book Title: Bhagwan Mahavir Prati Shraddhanjaliya
Author(s): Jain Mitramandal Dharmpur
Publisher: Jain Mitra Mandal

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Page 80
________________ कर्मवाद The theory of Karma as minutely discussed and analysed is quite peculiar to Jainism. It is its upique feature, --- Prof. Dr. B. H. Kapadia: VOA.vol II P.228. कोई अधिक मेहनत करने पर भी बड़ी मुश्किल से पेट भरता है और कोई बिना कुछ किये भी आनन्द लूटता है, कोई रोगी है कोई निरोगी । कुछ इस भेद का कारण भाग्य तथा कर्मों को बताते हैं तो कुछ इस सारे भार को ईश्वर के ही सर पर थोप दते है कि हम बेवश हैं, ईश्वर की मर्जी ऐसी ही थी। दयालु ईश्वर को हम से ऐसी क्या दुश्मनी कि उसकी भक्ति करने पर भी वह हमें दुःख और जो उसका नाम तक भी नहीं लेते, हिंसा तथा अन्याय करते हैं उनको सुख दे ? जैन धर्म ईश्वर की हस्ती से इन्कार नहीं करता, वह कहता है कि यदि उस को संसारी झंझटों में पड़ कर कर्म तथा भाग्य का बनाने या उसका फल देने वाला स्वीकार कर लिया जावे तो उसके अनेक गुरणों में दोष आजाता है और यह संसारी जीव केवल भाग्य के भरोसे बैठ कर प्रमादी हो जाये। कर्म भी अपने पाप आत्मा से चिपटते नहीं फिरते । हम खुद अपने प्रमाद से कर्मबन्ध करते और उनका फल भोगते हैं। अपने ही पुरुषार्थ से कर्मबन्धन से मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं, परन्तु हम तो स्त्री, पुत्र, तथा धन के मोह में इतने अधिक फंसे हुए हैं कि क्षण भर भी यह विचार नहीं करते कि कर्म क्या हैं ? क्यों आते हैं , और कैसे इनसे मुक्ति हो कर अविनाशी सुख प्राप्त हो सकता है ? बड़ी खोज और खुद तजरबा करने के बाद जैन तीर्थंकरों ने यह सिद्ध कर दिया कि राग-रूष के कारण हम जिस प्रकार का संकल्प-विकल्प करते हैं, उसी जाति के अच्छे या बुरे कार्माण [ ३६३

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