Book Title: Bhagavati Jod 06
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 23
________________ १८. अध्यवसाय द्वार ४४. प्रभु! अध्यवसाय तसु केतला ? जिन भाखे असंख्यात हो । पसत्य अपसत्य स्यूं प्रभु ! जिन कहै बिहुं आख्यात हो || १९. अनुबंध द्वार ४५. हे प्रभु! ते पर्याप्तो असन्नी काल थकी कितरो अद्धा ? ४६. श्री जिन भाखं जयन्य थी, उत्कृष्ट पूर्व कोड़ है, आयु २०. कायसंवेध द्वार ४७. ते प्रभुजी ! पर्याप्तो असन्नी रत्नप्रभा पृथ्वी विषे ४८. पुनरपि पंचेंद्रिय तियंच हो। नरकपणे रहि संघ हो । पर्याप्तो असन्नी पंचेंद्री तिरि न्हाल हो । इमकेतलो काल सेवे तिको, करें गति आगति कितो काल हो ? ४९. जिन भावे भव आश्रयी, वे भव ग्रहण सुजोय हो । इक भवतिरि पं. असन्नियो, दूजो नारक भव होय हो । सोरठा ५०. मरी नेरइयो सोय, अंतर रहित सन्नीज द्वं । असन्नी न ह्न कोय, ते माटै भव ग्रहण बे ॥ ५१. काल आश्रयी जमन्य यो वर्ष सहस्र वश तास हो । अंतर्मुहूर्त अधिक ही, हिव तसु न्याय विमास ही ॥ सोरठा पंचेंद्री तिर्यच हो । ए अनुबंध सुसंच हो | अंतर्मुह होय हो । जितो अबलोय हो । ५२. वर्ष सहस्र दश वक्क, जघन्य स्थिति नारक तणी । अंतर्मुहुर्त अधिक असन्नी पं. तिरि आउयो । 1 ५२. उत्कृष्ट पत्योपम तणों, असंख्यातमो भाग हो । कोड़ पूर्व वले अधिक ही, हिव तसु न्याय सुमाग हो || Jain Education International वा० -दहा असनो भवे पूर्व को उत्कृष्ट आउदो भोगवी पहिली नरके पल्य के असंख्यातमे भाग नेरइयापण ऊपनो ए बिहुं भव उत्कृष्ट स्थिति नुं काल जाणवूं । २४. सेवे कालज एतलो करें गति आगति तो काल हो । अधिक नैं अधिक गमो दाख्यो प्रथम दयाल हो । वा० इहां ज्ञान अज्ञान द्वार एक गिणियो ते इति अधिक नैं अधिक प्रथम गमक कह्यो । असन्नी-तिर्यंच-पंचेंद्री पर्याप्तो *लय धिन धिन जंबू स्वाम ने माटं बीस द्वार जाणवा । ४४. तेसि णं भंते! जीवाणं केवतिया अज्भवसाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! असंखेज्जा अज्भवसाणा पण्णत्ता । ( श० २४/२४) ते णं भंते! कि पसत्था ? अप्पसत्था ? गोयमा ! पसत्था वि, अप्पसत्था वि । ४५. से णं भंते ! (श० २५/२५ ) पाणिपंचिदियतिरिख जोणिति कालो के हो ? ४६. गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुण्वकोडी । ( ० २४/२६) ४७. से गं भते! पञ्चत्तावसणिपंचिदियतिरिकखोजिए रणभार पुढवीए नेरइए, ४८. पुणरवि पञ्जत्तावसपिपिदिपतिरिति केवतियं कालं सेवेज्जा ? केवतियं कालं गतिरागति करेज्जा ? ४९. गोयमा ! भवादेसेणं दो भवग्गणाई, 'दो भवग्गहणाई' ति एकत्रासञ्ज्ञी द्वितीये नारक: ( वृ० प० ८०९ ) ५०. ततो निर्गतः सन्ननन्तरतया सञ्ज्ञित्वमेव लभते न पुनरसमिति ( वृ० ८०९ ) ५१. कालादेसेणं जहणेणं दस वाससहस्साइं अंतोमुहुत्तमहियाई, ५२ वर्ष नारक जयन्यस्थितिराम्यधिकानि असज्ञिभवसम्बन्धिजघन्यायुः सहितानीत्यर्थः (बु०प०८०९) ५३. उक्कोसेणं पलिओ वमस्स असंबेज्जइभागं पुव्वको डिमन्महि, वा० इह पत्योपमासंख्येयभाग : पूर्वभवासञ्ज्ञनारकोत्कृष्टायुरूपः पूर्व फोटो वायुकृष्टापुष्करूपेति ( वृ० प० ८०९ ) ५४. एवतियं कालं सेवेज्जा, एवतियं कालं गतिरागति करेज्जा ॥ १ ॥ ( श० २४/२७ ) For Private & Personal Use Only श० २४, उ० १, ढा० ४१२ ९ www.jainelibrary.org

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