Book Title: Bhagavati Jod 03
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 12
________________ (१०) 'क्रियमाण कृत' सिद्धान्त को असत्य मानकर उनसे अपना संबंध विच्छेद कर लिया। भगवान से सम्बन्ध विच्छेद करने के बाद अपने मिथ्या अभिनिवेश के कारण जमालि असत् सिद्धान्तों का निरूपण करता रहा। आयुष्य पूर्ण होने पर वह किल्विषिक देव बना। यह पूरा प्रसंग स्पष्ट करता है कि गुरु की प्रत्यनीकता के कारण व्यक्ति अपना कितना अहित कर लेता है। इस शतक के अन्तिम उद्देशक में कुछ स्फुट प्रसंग वर्णित हैं। कुल मिलाकर पूरे शतक की जोड़ पाठक की रुचि को परिष्कृत करने वाली है । अनेक स्थलों पर मूल पाठ के साथ बृत्ति की भी जोड़ की गई है । दसवें शतक के भी चौतीस उद्देशक हैं उनकी सूचना संग्रहणी गाथा में इस प्रकार हैं दिस संवुड अणगारे आइड्ढी सामहत्थि देवि समा। उत्तर अन्तरदीवा दसमम्मि सयम्मि चउत्तीसा ।। प्रथम उद्देशक में दिशाओं का वर्णन है। शरीर के संबंध में यहां उल्लेख मात्र हुआ है । विस्तृत विवेचन के लिए प्रज्ञापना सूत्र के इक्कीसवें पद का संकेत किया है। दूसरे उद्देशक में ऐर्यापथिकी और साम्परायिकी क्रियाओं की प्राप्ति का वर्णन है । मूल आगम में योनि वर्णन में प्रज्ञापना के नौवें पद का संकेत देकर पूरे प्रकरण को अत्यन्त संक्षिप्त रखा गया है । जोड़ में भगवती और प्रज्ञापना की वृत्ति के आधार कुछ विस्तार के साथ निरूपित किया गया है । इसके बाद वेदना, प्रतिमा, आराधना आदि का वर्णन है। तीसरे उद्देशक की आदि में देवों का वर्णन है और उसके अन्तिम भाग में प्रज्ञापनी, आमंत्रणी आदि भाषाओं का विवेचन है। चौथे उद्देशक में असुरकुमार आदि देवों के मंत्रीस्थानीय त्रायस्त्रिश देव तथा पांचवें उद्देशक में उनकी देवियों के परिवार का वर्णन है। छठे उद्देशक में देवविमानों का वर्णन है। इसका प्रारंभ शक की सुधर्मा सभा के सम्बन्ध में प्रश्न उपस्थित करते हुए किया गया है। आगमकार ने राजप्रश्नीय सूत्र का उल्लेख कर पूरे प्रसंग को विराम दे दिया। वृत्तिकार ने इसको थोड़ा-सा आगे बढ़ाया है । भगवती-जोड़ में इस प्रसंग को बहुत विस्तार से दिया गया है। यह विस्तार राजप्रश्नीय सूत्र को आधार बनाकर किया गया है। इसकी सूचना देते हुए जयाचार्य ने लिखा है हिव वर्णक अभिषेक न इन्द्र तणो अवधार । रायप्रश्रेणी सूत्र थी, कहिये इहां उदार ॥ प्रस्तुत ग्रन्थ के ३४८ वे पृष्ठ से शुरू होकर ३८० वें पृष्ठ तक ३३ पृष्ठों में आबद्ध यह वर्णन स्वर्गलोक और उसकी परंपराओं का सजीव चित्र उपस्थित करने वाला है । इस प्रसंग में जयाचार्य ने मूर्तिपूजा के संबंध में आगमों के आधार पर एक लम्बी-चौड़ी समीक्षा (पृ. ३६८-३७३) लिखी है, जो सूक्ष्म दृष्टि से मननीय है । शेष अट्ठाईस उद्देशकों में उत्तर दिशा स्थित अट्ठाईस अन्तीपों का उल्लेख केवल दो दोहों में किया है प्रभु ! उत्तर नां मनुष्य नो एकोहक अभिधान । तास द्वीप पिण एकरुक किहां कह्यो भगवान ? इम जिम जीवाभिगम में तिमज सर्व सुविशेष । जाव शुद्धदत द्वीप लग, ए अठवीस उद्देश ॥ नोवे शतक में दक्षिण दिशा के अन्तर्वीपों का उल्लेख है और दसवें शतक में उत्तर दिशा के । इस प्रकार दक्षिण एवं उत्तर के अन्तर्वीपों को संयुक्त करने से इनकी संख्या छप्पन हो जाती है। ग्यारहवें शतक के प्रथम आठ उद्देशकों में उत्पल आदि वनस्पति जीवों का वर्णन है। नौवें उद्देशक में राजर्षि शिव का जीवनवृत्त है। राजा शिव दिशापोखी तापस बना था। उस प्रसंग में होत्तिय, पोत्तिय आदि अनेक प्रकार के तापसों की चर्या पर प्रकाश डाला गया है। तापस चर्या का पालन करते-करते राजषि शिव को विभंग अज्ञान उत्पन्न हुआ। सात द्वीप और सात समुद्रों तक उसके ज्ञान की सीमा थी। उसने यह बात जनता के बीच में कही। गणधर गौतम ने यह बात सुनी। उनके माध्यम से सारी घटना भगवान महावीर तक पहुंची। उन्होंने असंख्य द्वीप और असंख्य समुद्रों का निरूपण किया। राजषि शिव के पास यह संवाद पहुवा । वह भगवान के पास आया। भगवान ने उसको प्रतिबोध दिया। प्रतिबुद्ध होकर भगवान की शरण में आ गया। Jain Education Intemational on Intemātional For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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