Book Title: Bhagavati Jod 03
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 11
________________ सम्पादकीय भगवती जोड़ का तीसरा खण्ड तीन शतकों का समवाय है। प्रथम और द्वितीय खण्ड में चार-चार शतक हैं। प्रस्तुत खण्ड में नौवां शतक बहुत विस्तृत है, इसलिए बीन ही शतक आ पाए हैं। नौवें शतक की विषय बस्तु इसकी संग्रहणी गाथा मैं संकलित है । उस गाथा की जोड़ इस प्रकार है प्रथम उद्देशे मेव, जबूद्वीप नी वारता । द्वितीय ज्योतिषी देव, वक्तव्यता तेहनी अछै । अन्तर्वीपा जेह, अष्टवीस उद्देश तसु । असोच्चा नै गंगेय, उद्देशक बत्तीसमो॥ कुंडग्राम बलि जाण, पुरुष हणे जे पुरुष नै । नवमे शतक पिछाण, उद्देशा चउतीस ए॥ प्रथम उद्देशक में जंबूद्वीप का वर्णन है। जंबूद्वीप के संबंध में जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति में विस्तृत विवेचन है । उसका उल्लेख करते हुए यहां कुछ संक्षिप्त सूचनाओं का आकलन किया गया है। दूसरे उद्देशक में यह बताया गया है कि जम्बूद्वीप क्षेम में दो चन्द्रमा और दो सूर्य हैं लवण समुद्र में चार चन्द्रमा और चार सूर्य हैं । धातकी खण्ड में बारह चन्द्रमा और बारह सूर्य हैं । कालोदधि में चन्द्रमा और सूर्य की संख्या बयालीस-बयालीस है। पुष्करद्वीप में एक सौ चम्मालीस चन्द्रमा और एक सौ चम्मालीस सूर्य हैं। इनमें से बहत्तर चन्द्रमा और बहत्तर सूर्य गतिशील हैं। शेष मनुष्य क्षेत्र से बाहर होने के कारण स्थिर हैं । इस वर्णन के अनुसार मनुष्य क्षेत्र में एक सौ बत्तीस चन्द्रमा और एक सौ बत्तीस सूर्य गति करते हैं। यह जैन आगमों का ज्योतिविज्ञान है। आधुनिक विज्ञान के साथ इसकी संगति कैसे बैठती है, यह काम शोधकर्ताओं का है। तीसरे से तीसवें तक अट्ठावीस उद्देशकों में अन्तर्दोषों का वर्णन है। यह वर्णन बहुत संक्षिप्त है। फिर भी इसमें द्वीपों के नाम और उनकी लम्बाई चौड़ाई को स्पष्ट रूप से निदर्शित किया गया है। इकतीसवें उद्देशक में असोच्चा केवली का प्रकरण है । प्रस्तुत ग्रंथ के बीस पृष्ठा में इस प्रसंग को सहज और सरल रूप में प्रतिपादित किया गया है। असोच्चा केवली के साथ प्रसंगवश सोच्चा केवली का भी संक्षिप्त विवेचन दिया गया है। नौवें शतक का बत्तीसवा उद्देशक विलक्षण है। यह उद्देशक या शतक विशेष रूप से गंगेयजी के भंगों के नाम से प्रसिद्ध है। गंगेय तीर्थंकर पार्श्वनाथ को परम्परा का साधु था। वह भगवान महावीर के पास आया। उसने भगवान से नैरयिक जीवों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्रश्न पूछे । भगवान ने उन प्रश्नों के उत्तर दिये। उत्तर में से प्रश्न निकलते गए और जिज्ञासा-समाधान का एक लंबा सिलसिला चल पड़ा। गणित के विद्याथियों के लिए यह बहुत ही रोचक विषय है। प्रस्तुत ग्रन्थ के १६० पृष्ठों में किया गया यह विवेचन ज्ञानवृद्धि के साथ मानसिक एकाग्रता के लिए भी अमोघ साधन है । पाठक की गणित में अभिरुचि न हो तो यह प्रसंग अनपेक्षित विस्तार की प्रतीति भी दे सकता है। जयाचार्य ने इस समग्र प्रसंग को जोड़ के साथ-साथ विविध यंत्रों में आबद्ध कर विशिष्ट सृजन प्रतिबद्धता का परिचय दिया है। तेतीसवें उद्देशक में ऋषभदत्त और देवानन्दा की दीक्षा का प्रसंग है। इसी शृंखला में जमालि का विस्तृत वर्णन है। जमालि की दीक्षा और जनपद विहार की अनुमति मांगने तक का विवेचन सामान्य है। उसके बाद घटना दूसरा मोड़ लेती है। जमालि के बार-बार अनुरोध पर भी भगवान् ने उसको स्वतन्त्र विहार की अनुमति नहीं दी। भगवान् के मौन का लाभ उठाकर उसने अपने पांच सौ शिष्यों के साथ प्रस्थान कर दिया। श्रावस्ती नगरी में जमालि अस्वस्थ हो गया। वहां उसने अपने शिष्यों को बिछौना बिछाने का निर्देश दिया। जमालि की अस्वस्थता बढ़ रही थी। वह बैठने में भी असमर्थ हो गया। उसने शिष्यों से दूसरी बार बिछौने के बारे में पूछा । शिष्यों ने कहा--- बिछौना अब तक बिछा नहीं है, बिछाया जा रहा है। इस बात पर जमालि का मन संदिग्ध हो उठा । उसने भगवान महावीर के www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only

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