Book Title: Bandh Pamokkho Tuzjna Ajjhatthev Author(s): Amarmuni Publisher: Z_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf View full book textPage 4
________________ के साथ बाहर में इसे शत्रु भी मिल जाएंगे। किन्तु जब अन्तर्मुखी होकर अपनी आत्मा को ही मित्र की दृष्टि से देखेगी, तो बाहर में न कोई मित्र होगा और न कोई शत्रु ही होगा । संसार के सभी बाह्य शत्रु और मित्र नकली प्रतीत होंगे। भगवान् महावीर ने भी कहा है-- "पुरिसा! तुममेव तुम मित्तं, कि बहिया मित्तमिच्छसि ?"---प्राचारांग, १, ३, ३. मानव ! तू ही तेरा मिन है, बाहर के मित्रों को क्यों खोजता है ? जब आत्मा अपने स्वरूप में, ज्ञान, दर्शन, चारित्र के उपयोग में रहती है, तो वह अपना परम मित्र है और जब वह अपने स्वरूप से हटकर पर-भाव में चली जाती है, तो अपना सबसे बड़ा शत्रु भी वही होती है। जहाँ शुद्ध चेतना है, वहाँ वीतराग-भाव होता है और जो वीतराग-भाव है, वह अपना परम मित्र है और वही मोक्ष है। इसके विपरीत जहाँ आत्मा राग-द्वेष की लहरों में थपेड़े खाने लग जाती है, अशुद्धता में, मिलावट में चली जाती है, तो वहीं भाव अपना शत्र-भाव है। इसलिए जब अपनी आत्मा को मित्र रूप में ग्रहण करने का प्रयत्न होगा, तभी वह मुक्ति का दाता हो सकेगी। आत्मा की अनन्त-शक्ति : कुछ लोगों का विचार है कि बन्धनों में बहुत अधिक शक्ति है, उन्हें तोड़ना अपने बलबूते से परे की बात है, किन्तु यह यथार्थ नहीं है। प्रात्मा में बन्धन की शक्ति है, तो मुक्त होने की भी उसी में शक्ति है। जैन-दर्शन के कर्मवाद का महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त यही है कि प्रत्येक प्राणी अपनी स्थिति का स्रष्टा, अपने भाग्य का विधाता स्वयं ही है। वह स्वयं ही अपने नरक और स्वर्ग का निर्माण करता है और स्वयं ही बन्धन और मोक्ष का कर्ता है। जैन-दर्शन के इस कर्म-सिद्धान्त ने मनुष्य को बहुत बड़ी प्रेरणा, साहस और जीवन दिया था। किन्तु आगे चलकर कर्मों की इस दासता ने मानव को इस प्रकार घेर कर जकड़ लिया कि प्रत्येक क्षण उसके दिमाग में सिर्फ यही एक बात घूमती रहती है कि काम, क्रोध, अभिमान आदि बहुत बलवान हैं, इनसे छुटकारा पाना बहुत ही कठिन है। इस प्रकार कुछ व्यक्ति देवी-देवताओं और संसार के अन्य पदार्थों की दासता से मुक्त होकर भी कर्मों की दासता में फंस गए। वे यह भूल गए कि 'कर्म' की कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। वह तो मन के विकल्पों का ही एक परिणाम है। अपने मन का विकल्प ही उसका स्रष्टा है। वह एक पग में जहाँ बन्धन डालता है, वहीं दूसरे पग में वह मक्त भी कर सकता है। कमवर्गणाना के अनन्त दल को प्रात्मीय-चेतना की शुद्ध शक्ति क्षणभर में नष्ट कर सकती है। "वायुना चीयते मेघः पुनस्तेनैव नीयते।। मनसा कल्पते बन्धो मोक्षस्तेनैव कल्पते ॥" साफ खुला आकाश है, सूर्य चमक रहा है, किन्तु अकस्मात् ऐसा होता है कि कुछ ही देर में घटाएँ घिर आती हैं और मूसल-धार वृष्टि होने लगती है। उन काली घटाओं को किसने बुलाया ? हवा ने ही न? और वही हवा एक क्षण में उन सब घटाओं को बिखेरकर आकाश को बिल्कुल साफ भी तो कर देती है। अतः स्पष्ट है कि हवा से ही बादल बने और हवा से ही नष्ट हए । इसी प्रकार मन का रागात्मक विकल्प कर्म के बादलों को लाकर आत्मा रूपी सूर्य पर फैला देता है और अन्धकार-ही-अन्धकार सामने छा जाता है। जब वर्षा-रूपी कर्मों का उदय होता है, तब व्यक्ति चीखता है, पुकारता है और अपने को बिल्कुल असहाय और दुर्बल मानने लग जाता है। किन्तु यह सब मन के एक विकल्प का ही प्रतिफल है। जब चैतन्य देव वीतराग-भाव की दूसरी करवट बदलता है, तो उन कर्म रूप घटाओं को छिन्न-भिन्न कर देता है, आत्मा रूपी सूर्य का तेज पुनः निखर उठता है। और, चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश हँसता नजर आता है। घटाओं के बनने में समय पन्ना समिक्खए धम्म Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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