Book Title: Bandh Pamokkho Tuzjna Ajjhatthev
Author(s): Amarmuni
Publisher: Z_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf

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Page 10
________________ आत्मा न स्त्री है, न पुरुष है और न नपुंसक है । ग्रात्मा न बाल है, न तरुण है, न प्रौढ़ है, न वृद्ध है । ये सब अवस्थाएँ आत्मा की नहीं, शरीर की होती हैं । अतः इनके आधार पर शरीर को आत्मा समझना और आत्मा को शरीर समझना, एक भयंकर मिथ्यात्व है । जब तक यह मिथ्यात्व नहीं टूटेगा, तब तक ग्रात्मा का उद्धार और कल्याण कभी नहीं हो सकेगा । इस मियात्व को तोड़ने की शक्ति एकमात्र भेद - विज्ञानरूप सम्यक् दर्शन में ही है । जीवन के रहने पर ही सब कुछ रहता है, जीवन के न रहने पर तो कुछ भी नहीं रहता । इसी आधार पर अध्यात्मवादी दर्शन में जीव को अन्य सभी तत्त्वों का राजा कहा गया है । यदि इस जीव, चेतन और आत्मा का वास्तविक बोध हो जाता है, तो जीव से भिन्न प्रजीव को एवं जड़ को पहचानना आसान हो जाता है। अजीव के परिज्ञान के लिए भी, पहले जीव का परिबोध ही आवश्यक है । स्व को जानो, स्व को पहचानो, यही सब से बड़ा सिद्धान्त है, यही सबसे बड़ा ज्ञान है और यही सब से बड़ा सम्यक् ज्ञान है। जीव की पहचान ही सबसे पहला तत्त्व है । जब जीव का यथार्थ परिज्ञान हो जाता है, तब प्रश्न यह उठता है क्या इस संसार जीव का प्रतिपक्षी भी कोई तत्त्व है ? इसके उत्तर में स्पष्ट है कि जीव का प्रतिपक्षी प्रजीव है । प्रजीव शब्द में पूर्व का 'अ' शब्द अभाव वाचक नहीं है, अपितु प्रतिपक्ष का, विरोधी भाव का वाचक है, जैसे कि अधर्म । अधर्म, धर्म का प्रभाव नहीं है, अपितु धर्म विरुद्ध धर्म है, कदाचार है । अत: प्रतिपक्ष रूप अजीव के ज्ञान के लिए, जीव को ही आधार बनाना पड़ता है । इसलिए मैंने पूर्व में कहा था- 'सप्त तत्त्वों में, षड्-द्रव्यों, नव पदार्थों में सबसे मुख्य तत्त्व, सबसे मुख्य द्रव्य एवं सबसे प्रधान पदार्थ जीव ही है । जीव के ज्ञान के साथ अजीव का ज्ञान स्वतः ही हो जाता है। शास्त्रकारों ने जीव का लक्षण बताया है—उपयोग । और, जीव के लिए कहा है, कि जिसमें उपयोग न हो, वह प्रजीव है। अजीव का शब्दार्थ ही हैजो जीव न हो, वह जीव अर्थात् अ + जीव । जीव का प्रतिपक्षी भावं रूप पदार्थ, प्रभाव रूप नहीं । श्रतः प्रजीव से पहले जीव का ही प्रमुख स्थान है । जीव और जीव के बाद श्रास्रव-तत्त्व आता है । प्रास्रव क्या है ? जीव और अजीव का परस्पर विभाव रूप परिणति में प्रवेश ही आसव है। दो विजातीय पृथग्भूत तत्त्वों के मिलन की क्रिया, विभाव परिणाम है। जीव और पुद्गलरूप प्रजीव का विभाव रूप परिणाम ही प्रसव है । जीव की विभाव रूप परिणति और प्रजीव की विभाव रूप परिणति ही वास्तव में आस्रव है । एक प्रोर, पूर्व बद्ध मोह-कर्म के उदय से आत्मा राग-द्वेष रूप विभाव अवस्था में परिणत होता है, तो दूसरी ओर कार्मण वर्गणा के पुद्गल भी उनके निमित्त से कर्मरूप विभाव अवस्था में परिणति करते हैं। उक्त उभयमुखी विभाव के द्वारा जब जीव और जीव का संयोग होता है, उस अवस्था को शास्त्रकारों ने ग्रास्रव कहा है । इसलिए जीव और अजीव के बाद आस्रव रखा है । are के बाद बन्ध आता है । बन्ध का अर्थ है -- कर्म- पुद्गल रूप अजीव और जीव का दूध और पानी प्रथवा अग्नि- तप्त लोह - पिण्डवत् एक क्षेत्र अवगाही हो जाना । बन्ध का अर्थ- वह अवस्था है, जब दो विजातीय तत्त्व परस्पर मिल कर संबद्ध हो जाते हैं। इसी को संसार अवस्था कहते हैं । पुण्य और पाप, जो कि मन, वचन और काय-योग की शुभ और अशुभ क्रियाएँ हैं । उनका अन्तर्भाव पहले प्रास्रव में और फिर बन्ध में कर दिया जाता है । आव दो प्रकार का होता है - शुभ और अशुभ। प्रसव के बाद ग्रात्मा के साथ बन्ध की प्रक्रिया होती है । यतः बन्ध भी दो प्रकार का होता है - शुभ-बन्ध और अशुभ- बन्ध । इस प्रकार शुभ और शुभ रूप पुण्य और पाप दोनों ही प्रात्रव और बन्ध के अन्तर्गत है । यहाँ तक मुख्यतः संसार अवस्था का ही वर्णन किया गया है। संसार अवस्था का अर्थ बाहर के किसी भी वन, पर्वत, नदी और जड़ पदार्थ नहीं, प्रत्युत वास्तविक संसार तो कर्मपरमाणुओं का अर्थात् कर्म- दलिकों का श्रात्मा के साथ संबद्ध हो जाना है। जब तक जीव और ६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only पन्ना समिrखए धम्मं www.jainelibrary.org

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