Book Title: Bandh Pamokkho Tuzjna Ajjhatthev
Author(s): Amarmuni
Publisher: Z_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf

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Page 1
________________ बंध- पमोक्खो तुज्झ अज्झत्थेव यह श्रात्मा श्रनन्तकाल से बन्धन में बँधी चली आ रही है । बन्धन भी एक नहीं, बल्कि अनन्तानन्त बन्धन आत्मा पर लगे हुए हैं। ऐसी बात भी नहीं है कि ग्रात्मा उन बन्धनों को पुरुषार्थहीन बनकर चुपचाप सहती आई है, बल्कि वह उन्हें तोड़ने के प्रयत्न सदा-सर्वदा करती रही है । भले ही भोग कर ही क्यों न तोड़ा हो, पर तोड़ा जरूर है। इस प्रकार यह आत्मा बन्धन और मोक्ष के बीच से गुजरती रही है । विचारणीय प्रश्न यह है कि ये बन्धन आत्मा में कहाँ से आए हैं ? ये शरीर, ये परिवार और ये ऐश्वर्य यादि कहाँ से जुटाए गए हैं ? क्या इन्हीं बाहरी पदार्थों ने आत्मा को बाँध रखा है ? या अन्दर के काम-क्रोध आदि ने उसके गले में फंदा डाल रखा है ? इन दोनों -- बाहरी और भीतरी बन्धनों के स्वरूप को समझे बिना 'श्रात्मा के बन्धन क्या हैं ? ' इस प्रश्न का उत्तर ठीक तरह नहीं समझा जा सकता। और जब तक बन्धन का स्वरूप नहीं समझा जाता, तब तक मोक्ष का स्वरूप भी नहीं समझा जा सकता । जैसा कि कहा गया है -- "बन्धन का स्वरूप समझने के बाद ही उसे तोड़ने का प्रयत्न किया जा सकता है— बुझिज्जित्ति तिउटिज्जा बन्धनं परिजाणिया ।" - सूत्रकृतांग, १, १, बन्धन क्या है ? बन्धन का स्वरूप समझने के लिए हमें मूल कर्म और उसकी उत्तरकालीन परिणति को समझना होगा । कर्म के दो रूप हैं - एक कर्म, दूसरा नोकर्म । पहला कर्म है, दूसरा वास्तव में तो कर्म नहीं है, किन्तु कर्म जैसा ही लगता है। इसलिए साधारण भाषा में उसको नोकर्म कह दिया जाता है। शरीर, परिवार, धन, सम्पत्ति आदि सब नोकर्म हैं। नोकर्म भी दो प्रकार के होते हैं-- एक बद्ध नोकर्म, दूसरा श्रबद्ध नोकर्म । बद्ध का अर्थ है -- बँधा हुआ और प्रबद्ध का अर्थ है--नहीं बँधा हुआ । संसार दशा जहाँ शरीर है, वहाँ आत्मा र जहाँ आत्मा है, वहाँ शरीर है। दोनों दूध और पानी की तरह परस्पर मिले हुए हैं, एक-दूसरे से बँधे हुए हैं। इसलिए शरीर प्रात्मा से बँधा हुआ होने के कारण बद्ध नोकर्म है । यद्यपि दोनों का स्वरूप अलग-अलग है, सत्ता अलग-अलग है, किन्तु अनन्तानन्त काल से शरीर में प्रात्मा का निवास रहा है, एक शरीर छोड़ा, तो दूसरा मिल गया और दूसरा छोड़ा, तो तीसरा मिल गया। एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर की ओर जाते समय, मध्य के समय में भी, जिसे विग्रह गति कहते हैं, तेजस और कार्मण शरीर साथ रहते हैं । संसारी आत्मा का ऐसा एक भी क्षण नहीं है, जबकि वह बिना किसी भी प्रकार के शरीर के संसार में रही हो। इस प्रकार शरीर आत्मा के साथ बद्ध है । अतः शास्त्रकारों ने उसे बद्ध नोकर्म कहा है । अबद्ध नोकर्म वे हैं, जो प्रात्मा के साथ बद्ध नहीं है । शरीर की तरह वे प्रत्येक समय आत्मा के साथ सम्पृवत नहीं रहते। उनका कोई भी निश्चय नहीं होता कि कहाँ साथ रहें, कहाँ नहीं, जैसे कि धन, मकान, परिवार आदि शरीर के समान बद्ध रूप में सदा साथ नहीं रहते । ये सब आत्मा में दूध और पानी की तरह एकमेक संपृक्त हो कर भी नहीं रहते, अपितु पृथग्भाव से रहते हैं । अतः इन्हें अबद्ध नोकर्म कहा जाता है । बंध-मोखो तुझ अज्झत्थेव Jain Education International For Private & Personal Use Only ५७ www.jainelibrary.org.

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