Book Title: Bandh Pamokkho Tuzjna Ajjhatthev
Author(s): Amarmuni
Publisher: Z_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf

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Page 11
________________ पुदगल की यह संयोग अवस्था बनी रहेगी, तब तक संसार की स्थिति और सत्ता भी बनी रहेगी ! यह स्वर्ग और नरकों के खेल, यह पशु-पक्षी, कीट-पतंग एवं मानव आदि का जीवन, सब प्रस्रव और बन्ध पर ही आधारित हैं। शुभ और अशुभ अर्थात् पुण्य और पाप, यह सब भी संसार के ही खेल हैं । इनसे आत्मा का कोई हित नहीं होता, बल्कि अहित ही होता है । अध्यात्मज्ञान की दृष्टि में शुभ भी बन्धन है और अशुभ भी बन्धन है । पाप भी बन्धन है और पुण्य भी बन्धन है । सुख भी बन्धन है और दुःख भी बन्धन है । श्रव और बन्ध के अनन्तर प्रश्न यह होता है कि यदि यह सब कुछ संसार है, बंधन है, तो संसार का विपरीत भाव मोक्ष क्या वस्तु है ? इसके समाधान में यह कहा गया है कि आत्मा की विशुद्ध अवस्था ही मोक्ष है, जो शुभ और अशुभ दोनों से अतीत है । दुःख की व्याकुलता यदि संसार है, तो सुख की प्रासक्ति रूपी आकुलता भी संसार ही है । मोक्ष की स्थिति न दुःख की व्याकुलता रहती है और न सुख की ही प्राकुलता रहती है। जब तक जीव इस भेद - विज्ञान को नहीं समझेगा, तब तक वह संसार से निकल कर मोक्ष के स्वरूप में रमण नहीं कर सकेगा । पुद्गल और जीव का संयोग यदि संसार है, तो पुद्गल और जीव का वियोग ही मोक्ष है । -- श्रात्मा और अनात्मा मोक्ष के लिए यह श्रावश्यक है कि जो प्रजीव कर्म- पुद्गल जीव के साथ सम्बद्ध होने वाला है या हो चुका है, उसे जीव से अलग रखने या अलग करने का प्रयत्न किया जाए। और इसी को मोक्ष की साधना कहते हैं। इस साधना का मुख्य केन्द्र बिन्दु हैका भेद - विज्ञान | जब तक जीव और अजीव परस्पर पृथक् है, इस भेद- विज्ञान का ज्ञान नहीं हो जाता है, तब तक मोक्ष की साधना सफल नहीं हो सकती । इस भेद - विज्ञान का ज्ञान तभी होगा, जबकि श्रात्मा को सम्यक दर्शन की उपलब्धि हो जाएगी । सम्यक् दर्शन के अभाव में न मोक्ष की साधना ही की जा सकती है और न वह किसी भी प्रकार से फलवती ही हो सकती है। भेद - विज्ञान का मूल आधार सम्यक् दर्शन ही है । सम्यक् दर्शन के अभाव में जीवन की एक भी क्रिया मोक्ष का अंग नहीं बन सकती, प्रत्युत उससे संसार की अभिवृद्धि ही होती है । मोक्ष की साधना के लिए साधक को जो कुछ करना है, वह यह है कि वह शुभ और अशुभ दोनों विकल्पों से दूर हो जाए। न शुभ को अपने अन्दर आने दे और न अशुभ को ही अपने अन्दर झाँकने दे। जब तक अन्दर के शुभ एवं अशुभ के विकल्प एवं विकार दूर नहीं होंगे, तब तक मोक्ष की सिद्धि नहीं की जा सकेगी। प्रस्रव से बन्ध और बन्ध से फिर आस्रव, यह चक्र प्राज का नहीं, बल्कि अनादिकाल का है । परन्तु इससे विमुक्त होने के लिए, श्रात्म-सत्ता का पूर्ण श्रद्धा जाग्रत होना ही चाहिए। शुभ और अशुभ के विकल्प जब तक बने रहेंगे, तब तक संसार का अन्त नहीं हो सकता, भले ही हम कितना ही प्रयत्न क्यों न कर लें । संसार के विपरीत मोक्ष मार्ग की साधना करना ही अध्यात्म है । मोक्ष का अर्थ है-आत्मा की वह विशुद्ध अवस्था, जिसमें आत्मा का किसी भी विजातीय तत्त्व के साथ संयोग नहीं रहता और समग्र विकल्प एवं विकारों का अभाव होकर, आत्मा निज स्वरूप में स्थिर हो जाती है । अतः आत्मा को विजातीय-भावों से अलग करना ही मोक्ष का हेतु है । जिस प्रकार संसार के दो कारण हैं -- आस्रव और बन्ध । उसी प्रकार मोक्ष के भी दो कारण हैंसंवर श्रौर निर्जरा । संवर क्या है ? प्रतिक्षण कर्म- दलिकों का जो आत्मा में आगमन है, उसे रोक देना ही संबर है । प्रतिक्षण आत्मा कषाय और योग के वशीभूत होकर, नवीन कर्मों का उपार्जन करती रहती है। उन नवीन कर्मों के आगमन को प्रकषाय-भाव और योगनिरोध से रोक देना ही, संवर कहा जाता है । प्रश्न है, निर्जरा क्या है ? उत्तर है, पूर्वबद्ध कर्मों का एकदेश से आत्मा से अलग हटते रहना ही निर्जरा है। इस प्रकार धीरे-धीरे जब पूर्वबद्ध कर्म आत्मा से अलग होता रहेगा, तब एकक्षण ऐसा श्राता है, जबकि प्रात्मा सर्वथा कर्मविमुक्त हो जाती है । इसी को मोक्ष कहा जाता है । संवर और निर्जरा मोक्ष के हेतु हैं । क्योंकि ये दोनों प्रस्रव और बन्ध के विरोधी तत्त्व हैं । इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि जब तक संवर और निर्जरा रूप धर्म की साधना नहीं की जाएगी, तब तक मुक्ति की it-totra तुझ प्रज्झत्थेव Jain Education International For Private & Personal Use Only ६७ www.jainelibrary.org.

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