Book Title: Bandh Pamokkho Tuzjna Ajjhatthev Author(s): Amarmuni Publisher: Z_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf View full book textPage 2
________________ शरीर बन्धन नहीं है: - एक प्रश्न यह उठता है कि यदि धन-संपत्ति, परिवार आदि अबद्ध नोकर्म आत्मा को नहीं बाँधते हैं, तो क्या शरीर प्रादि बद्ध नोकर्म आत्मा को बाँधते हैं ? आखिर प्रात्मा किसके बन्धन में बँधी है? इसका उत्तर होगा कि शरीर तो जड़ है। यदि इस शरीर ने अात्मा को बाँधा है, तो यह कहना होगा कि गीदड़ की ठोकरों से शेर लुढ़क गया है। जो शेर समूचे जंगल पर अपना प्रभत्व जमाए रखता है, वह गीदड़ की हँकार के सामने पराजित हो गया है। जिस प्रकार अबद्ध नोकर्म में प्रात्मा को बाँधने की शक्ति नहीं है, उसी प्रकार इस बद्ध नोकर्म रूप शरीर में भी आत्मा को बाँधने की शक्ति एवं सामर्थ्य नहीं है। प्रात्मा, जो अनन्त पौरुषशाली तत्त्व है, वह इनके चंगुल में कभी नहीं फंस सकती। इस पर फिर यह प्रश्न उठता है कि यदि शरीर आत्मा को नहीं बाँधता तो, फिर मात्मा को कौन बाँधता है? क्या इन्द्रियाँ, प्रात्मा को बाँधती हैं ? ये कान, ये आँखें, ये जिह्वा--क्या प्रात्मा इन सबके बंधन में बंधती है ? शरीर और इन्द्रिय आदि में यह शक्ति नहीं है कि वे अनन्त बलशाली आत्मा को बाँध लें। यदि इनमें यह शक्ति होती तो भगवान् महावीर आदि वीतराग प्रात्मानों को भी बाँध लेते। किसी को मक्त होने ही नहीं देते। यह शरीर, ये इन्द्रियाँ, यह धरती, यह आकाश तथा नोकर्म के फल को भोगने के रूप में और भी, सिंहासन, छत्र, चामर प्रादि कितने ही पदार्थ उनके पास रहे, फिर भी इन सभी पदार्थों ने भगवान् महावीर आदि तीर्थकरों को क्यों नहीं बाँध लिया ? बन्धन भाव में है: जहाँ तक बंधन का प्रश्न है, यहाँ यह समझ लेना आवश्यक है कि बन्धन न तो शरीर में है, न इन्द्रियों में है, और न बाहर के किसी द्रव्य में ही है। वे सब जड़ है। बन्धन और मोक्ष देने की क्षमता जड़ में कभी हो नहीं सकती। बन्धन तो प्रात्मा के अपने ही विचार में है, भाव में है। जहाँ तक द्रव्य, द्रव्य है, वहाँ तक बन्धन नहीं है, परन्तु ज्योंही द्रव्य भाव की पकड़ में आया नहीं कि बन्धन हो गया। भाव से ही बन्धन होता है, भाव से ही मुक्ति । इसलिए यह ठीक कहा गया है--"मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।" मन ही बन्धन और मुक्ति का कारण है। बन्धन शरीर आदि से नहीं होता, बल्कि इनके निमित्त से मन में जो विकल्प होते है, जो राग-द्वेष के परिणाम होते हैं, उन विकल्पों और परिणामों के कारण बन्धन होता है। इसी प्रकार इन्द्रियाँ भी बन्धन नहीं है, किन्तु इन्द्रियों के द्वारा जो रूपादि का बोध और जानकारी होती है, और उसके पश्चात् जो भावना में विकृति आती है, राग-द्वेष का संचार होता है, वह आसक्ति एवं राग-द्वेष का घेरा ही आत्मा को बन्धन में डालता है। उस घेरे में वह पदार्थ, जो कि राग-द्वेष के विकल्प का निमित्त बना, नहीं बँधता, किन्तु विकल्प करने वाली प्रात्मा बँध जाती है। अन्य पदार्थ पर आत्मा का अधिकार कभी नहीं हो सकता। यदि इन पर आत्मा का अधिकार होता, तो वह किसी भी अभीष्ट पदार्थ को कभी नष्ट नहीं होने देती। और तो क्या, शरीर तक पर अधिकार नहीं है। बचपन के बाद जवानी आने पर मनुष्य सदा जवान ही रहना चाहता है, परन्तु संसार की कोई भी शक्ति इस दिशा में सफलता प्राप्त नहीं कर सकी। शरीर के पर्याय प्रतिक्षण बदलते रहते हैं, इन पर किसी का कोई अधिकार नहीं चल सकता। आज अनेक औषधियाँ, वैज्ञानिक अनुसंधान, इसके लिए हो रहे हैं। बड़े-बड़े मस्तिष्क इस चेष्टा में सक्रिय हैं कि मनुष्य अपने शरीर पर मनचाहा अधिकार रख सके, किन्तु आज तक भी यह संभव नहीं हो पाया है। जब अपने एकदम निकट के संगी-साथी बद्ध शरीर पर भी आत्मा का नियन्त्रण नहीं हो सकता, तो फिर धन, सम्पत्ति आदि अबद्ध नोकर्म की तो बात ही क्या है ? जब हमारे बिना चाहे भी आँख, कान, नाक और शरीर आदि के कण-कण जवाब देना शुरू कर देते हैं, तो बाहरी पदार्थ हमारे अनुकूल किस प्रकार होंगे यह हमारे मन का विकल्प ही है, जो कि सबको अपना ही समझ रहा है, शरीर आदि पर पन्ना समिक्खए धम्म Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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