Book Title: Balshiksha
Author(s): Jinvijay
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur

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Page 6
________________ जिस कातन्त्रव्याकरण के माधार पर लेखक ने अपने इस ग्रन्थ का मान किया है उसको तथा चान्द्रव्याकरण को लेकर हुछ प्रवाश्य विद्वानों ने उसी प्रार्थनार्य भेदभाव को प्रचारित करने का प्रयत्न किया है जिसको कि हम फादर हैरास के नेतृत्व में प्रचारित तथा सिन्धुघाटी की सभ्यता पर आश्रित प्रवृत्ति में सुविकसित रूप में देखते हैं। यह प्रवृत्ति। भारतवर्ष को यह सिखाना चाहती है कि भारतीय संस्कृति में जैन, बौद्ध , शक्ति जैसे प्रागमों और एकेश्वरवाद तथा योग आदि के सिद्धान्तों के जनप्रदाता एक विदेशी अथवा स्वदेशी द्राविड-संस्कृति थी और अपने को हिन्दू कहने वाले लोग प्राज जिस धर्म और दर्शन पर गर्व करते हैं उसमें उनका अपना कुछ भी नहीं है। हमारे राष्ट्रीय स्वावलम्बन और स्वाभिमान के अपहरण का यह योजनाबद्ध प्रयास बड़ो सावधानी से चलता मा रहा है और दुःख की बात यह है कि हमारे विद्वान् इसको नवीनतम खोज समझकर बेसमझे-बूझे अपनाते चले जा रहे हैं। सच्ची बात यह है कि भारतवर्ष की संस्कृति में भाषा, धर्म, जाति, नस्ल, भेष तथा रूपरंग के भेदभाव को कभी माना ही नहीं गया और इस देश में रहने वाली समस्त जनता को भारतीय-पन्तति अथवा भारतीय प्रजा कहा गया । जैसा कि इस प्रतिष्ठान से प्रकाशित चान्द्रव्याकरण की भूमिका में कहा गया है। कातन्त्र-शब्द प्राचीन 'काशकृत्स्नतंत्र' का संक्षिप्त रूप है और इसमें भी किसी समय पाणिनीय व्याकरण के समान ही वैदिक-व्याकरण का समावेश था। ऐसा कहने से मेरा अभिप्राय ऐसा कदापि नहीं कि इस व्याकरण का कर्ता जैन अथवा मजन था मैं केवल इतना ही कहना चाहता हूँ कि यह ग्रन्थकार जैनाजनादि-भेदभाव से परे उसी प्रकार एकमात्र भारतीय थे जिस प्रकार भारतवर्ष के प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद, जिसमें जैन, बौद्ध, शाक्त, शैव, वैष्णव, सौर, गाणपत्य प्रादि सभी प्रागमों के बीज उपलब्ध होते हैं। प्रावश्यकता इस बात की है कि हम विदेशों द्वारा दिखाई गई भेदबुद्धि को छोड़कर ऐक्य विधायिनी शुद्ध भारतीय बुद्धि को अपनाये। यही राष्ट्र की मांग है, यही भारतीय संस्कृति की पुकार है। ___इस ग्रन्थ के सम्पादन में सर्वश्री मुनिजिनविजय, श्रीलक्ष्मीनारायण गोस्वामी, श्रीठाकुरदत्त जोशी तथा विभाग के अन्य व्यक्तियों ने जो परिश्रम किया है उसके लिये में हार्दिक आभार प्रकट करता हुमा, इस ग्रन्थ को सुविज्ञ पाठकों के कर-कमलों में समर्पित करता हूँ। सूर्यसप्तमी, सं० १०२४, जोधपुर. -फतहसिंह *देखिये, बर्नेल कुत ही ऐन्द्र स्कूल पॉफ संस्कृत ग्रामर. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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