Book Title: Balavbodh Mokshmala
Author(s): Mansukhlal Ravjibhai Mehta
Publisher: Mansukhlal Ravjibhai Mehta

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Page 178
________________ १४२ मोक्षमाळा - पुस्तक बीजं. लागे ते अंगीकार करो. मारुं के बीजा गमे तेनुं भले एकदम तमे मान्य न करो पण तत्त्वने विचारो ! शिक्षापाठ ९९ समाजनी अगत्य. आंग्लभौमियो संसारसंबंधी अनेक कळा कौशल्यमां शाथी विजय पाया छे ? ए विचार करतां आपणने तत्काल जणाशे के तेओनो बहु उत्साह अने ए उत्साहमा अनेकनुं मळवुं. कळाकौशयना ए उत्साही काममां ए अनेक पुरुषोनी उभी थएली सभा के समाजे परिणाम शुं मेळव्युं ? तो उत्तरमां एम आवशे के लक्ष्मी, कीर्त्ति अने अधिकार ए एमनां उदाहरण उपरथी ए जातिनां कलाकौशल्यो शोधवानो हुं अहीं बोध करतो नथी, परंतु सर्वज्ञ भगवाननुं कहेलुं गुप्त तत्त्व प्रमाद स्थितिमां आवी पड छे, तेने प्रकाशित करवा तथा पूर्वाचार्यानां गुंथेलां महान शास्त्रो एकत्र करवा, पडेला गच्छना मतमतांतरने टाळवा; तेमज धर्मविद्याने प्रफुल्लित करवा सदाचरणी श्रीमंत अने धीमंत बन्नेए मळीने एक महान समाज स्थापन करवानी अवश्य छे, एम दर्शानुं हुं. पवित्र स्याद्वादमतनुं ढंकायलं तत्त्व प्रसिद्धिमां आणवा ज्यां सुधी प्रयोजन नथी, त्यां सुधी शासननी उन्नति पण नथी. लक्ष्मी, कीर्त्ति अने अधिकार संसारी कळाकौशल्यथी मळे छे, परंतु आ धर्मकलाकौशल्यथी तो सर्व सिद्धि सांपडशे. महान् समाजना अंतर्गत उपसमाज स्थापवा वाडामां बेसी रहेवा करतां मतमतांतर तजी एम कर उच्चित छे. हुं इच्छं छं के ते कृतनी सिद्धि थ‍ जैनांतर्गच्छ मतभेद टळो; सत्य वस्तु उपर मनुष्य मंडळनुं लक्ष आवो; अने ममत्व जाओ !

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