Book Title: Ayurved tatha Mahavir ka Garbhapaharan Author(s): Jagdishchandra Jain Publisher: ZZ_Anusandhan View full book textPage 2
________________ डिसेम्बर २००८ आयुर्वेद के लिए केवल वेदका प्रयोग करते हुए उसे अनादि और शाश्वत कहा है। कहते हैं कि प्रत्येक सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मदेव आयुर्वेद का प्ररूपण करते हैं । सृष्टि की उत्पत्ति के पूर्व उनके द्वारा १ हजार अध्यायों में १ लाख श्लोको में आयुर्वेद की रचना की हुई बतायी जाती है; तत्पश्चात् मनुष्यों की स्वल्प बुद्धि के अनुसार उन्हों ने इसे आठ भागों में विभक्त किया । यद्यपि आयुर्वेद को वेदका उपांग माना गया है, लेकिन इस शास्त्र के जीवनोपयोगी होने के कारण वेद की अपेक्षा भी इसका महत्त्व अधिक बताया गया है । सुश्रुत में कहा है कि वेदों का अध्ययन करने से तो केवल स्वर्ग की प्राप्ति आदि परलौकिक फल की ही उपलब्धि होती है, जबकि आयुर्वेद के अभ्यास से धन, मान आदि सांसारिक सुख, तथा व्याधि-पीड़ितों को जीवन-दान देने से स्वर्गप्राप्ति आदि का लाभ भी मिलता है । अष्टांगसंग्रह में इस सम्बन्ध में एक श्लोक है - क्वचिद्धर्मः क्वचिन्मित्रं क्वचिदर्थः क्वचिद्यशः । कर्माभ्यासः क्वचिच्चेति चिकित्सा नास्ति निष्फला ॥ - शारीरिक चिकित्सा करने से कहीं धर्म की प्राप्ति होती है, कहीं मित्र की, कहीं धन की कहीं यश की और कहीं स्वकर्म का अभ्यास होता है, अत: चिकित्सा कभी निष्फल नहीं जाती । व्याधि से पीड़ित रोगियों के रोग को शान्त करना और स्वास्थ्य की रक्षा करना - यह आयुर्वेद का उद्देश्य है । आयुर्वेद के मुख्य दो सम्प्रदाय है- एक कायचिकित्सा और दूसरा शल्यचिकित्सा । दोनों सम्प्रदायों के आचार्यों ने अपने-अपने विषय के अनेक ग्रन्थों का निर्माण किया, लेकिन दुर्भाग्य से इनमें से अधिकांश ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं है । भगवान् धन्वन्तरि (धन्वं शल्यशास्त्रं तस्य अन्तं पारं इयति गच्छतीति) से महर्षि सुश्रुतने शल्यप्रधान आयुर्वेद की शिक्षा प्राप्त कर सुश्रुतसंहिता की रचना की थी, शल्यचिकित्सा को आयुर्वेद का मुख्य अंग बताते हुए सुश्रुतसंहिता के सूत्रस्थान में देव और दानवों के युद्ध का उल्लेख किया गया है। कहते हैं कि देव और दानवों के युद्ध में परस्पर के प्रहार से जो योद्धा घायल हुए, उनके धावों की मरहम-पट्टी करने तथा यज्ञ के कटे हुए सिर का सन्धान करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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