Book Title: Ayurved tatha Mahavir ka Garbhapaharan Author(s): Jagdishchandra Jain Publisher: ZZ_Anusandhan View full book textPage 5
________________ ७० अनुसन्धान ४६ काणिय (अक्षिरोग), (६) झिमिय (जड़ता), (७) कुणिय (हीनांगत्व), (८) खुज्जिथ (कुबड़ापन), (९) उदररोग, (१०) मूय(गूंगापन), (११) सूणीय (शरीर की सूजन), (१२) गिलासणि (भस्मक), (१३) बेवइ (कंपन), (१४) पीढसप्पि (पंगुत्व), (१५) सिलीवय (श्लीपद = फीलपांव), और (१६) मधुमेह । विपाकसूत्र में सोलह व्याधियों के नाम निम्नलिखित हैं - (१) श्वास, (२) कास (खांसी), (३) ज्वर, (४) दाह, (५) कुक्षिशूल, (६) भगंदर, (७) अर्श (बवासीर), (८) अजीर्ण, (९) दृष्टिशूल, (१०) मूर्धशूल, (११) छोटी फुसियां उठ आती हैं) । ११ क्षुद्रकुष्ठों के नाम हैं - (१) स्थूलारुष्क (इसके कारण सन्धियों में अत्यन्त दारुण, स्थूल और कठिन गूमढ़े हो जाते हैं), (२) महाकुष्ठ (त्वचा में सिकुड़न और दरार पड़ जाती है और वह सुन्न हो जाती है), (३) एककुष्ठ (शरीर काला स्याह और लाल हो जाता है), (३) चर्मदल (जिस में हाथ-पैर के खाज,पीड़ा,जलन और सूजन हो जाय). (४) परिसर्प (जिसमें स्रवण करनेवाली फुसियां शरीर में धीरे-धीरे फैलती हों), (५) विसर्प (जिसमें रक्त और मांस को दषित कर, मा, जलन, अरति और पीड़ा उत्पन्न करके, त्वचा पककर शीघ्र ही चारों और फैल जाये), (६) सिध्म (इस में खाज आती है; यह श्वेत होता है, इस में कष्ट नहीं होता, यह क्षुद्र आकार का होता है, और प्राय: शरीर के ऊर्ध्व भाग में होता है), (७) विचिका अथवा विपादिका (विर्चिका में हाथों और पांवों में बहुत खाज आती है, पीड़ा होती है और रूखी-रूखी रेखाएं पड़ जाती है, यही जब पांवों में पहुंचकर खाज, जलन और वेदना पैदा कर देता है तो इसे विपादिका (विवाई) कहा जाता है), (८) किटिम (यह बहता रहता है, गोलाकार और घन होता है; इस में बहुत खाज आती है, यह चिकना और कृष्णवर्ण का होता है), (९) पामा (यह बहता रहता है, इस में खाज और जलन होने से छोटी-छोटी कुंसियां हो जाती हैं । अंग्रेजी में एक्जीमा कहते हैं), (१०) कच्छू (जब पामा में अत्यन्त जलन होने लगती है तो इसे कच्छू कहते हैं), (११) शतारुक, (सुश्रुत में रकसा; जिस में खाज आती हो और फुसियां न बहती हों; काश्यपसंहिता में शताहष्क.) । तथा देखिए सुश्रुत, निदानस्थान अध्याय ५ । १. तथा देखिए विपाकसूत्र १, पृ. ७; निशीथभाष्य ११.३६४६; उत्तराध्ययनसूत्र १०.२७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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