Book Title: Ayurved tatha Mahavir ka Garbhapaharan Author(s): Jagdishchandra Jain Publisher: ZZ_Anusandhan View full book textPage 6
________________ डिसेम्बर २००८ अरोचक (भोजन में अरुचि), (१२) अक्षिवेदना, (१३) कर्णवेदना, (१४) कण्डू (खुजली), (१५) जलोदर, (१६) कुष्ठ । अन्य रोगों में दुब्भूय (दुर्भूत = ईति. टिड्डीदलका उपद्रव), कुलरोग, ग्रामरोग, नगररोग, मंडलरोग, शीर्षवेदना, ओष्ठवेदना, नखवेदना, दन्तवेदना, कच्छू, खसर (खसरा), पाण्डुरोग, एकदो-तीन-चार दिन के अन्तराल से आनेवाला ज्वर, इन्द्रग्रह, धनुर्ग्रह (वायु के कारण शरीर का कुबडा हो जाना), स्कन्दग्रह, कुमारग्रह, यक्षग्रह, भूतग्रह, उद्वेग, हृदयशूल, उदरशूल, योनिशूल, महामारी, वल्गुली (जी मचलाना) और विषकुम्भ (फुड़िया) आदि का उल्लेख मिलता है । रोगों की उत्पत्ति वैद्यशास्त्र में वात, पित्त और कफ को समस्त रोगों का मूल कारण बताया गया है । स्थानांगसूत्र (९.६६७) में रोगोत्पत्ति के नौ कारण कहे हैं - (१) आवश्यकता से अधिक भोजन करना, (२) अहितकर भोजन करना, (३) आवश्यकता से अधिक सोना, (४) आवश्यकता से अधिक जागरण करना, (५) पुरीष का निरोध करना, (६) मूत्र का निरोध करना, (७) रास्ता चलना, (८) भोजन की प्रतिकूलता और (९) कामविकार । पुरीष के रोकने से मरण, मूत्र के रोकने से दृष्टि की हानि और वमन के रोकने से कोढ़ का होना बताया गया है । (बृहत्कल्पभाष्य ३.४३८०) । जैनश्रमणों को रोगजन्य संकट जैन श्रमण संयम का पालन करने के लिए दृढतापूर्वक आहार विहार सम्बन्धी व्रत-नियमों का आचरण करते थे । जैसे गंगा के उलटे स्रोत को पार करना, समुद्र को भुजाओं से तिरना, बालू के ग्रास को भक्षण करना, असि की धार पर चलना, लोहे के चने चबाना, प्रज्वलित अग्नि की शिखा पकड़ना और मन्दार पर्वत को तराजू पर तोलना कठिन है, वैसे ही श्रमणधर्म के आचरण को महादुष्कर बताया है। फिर भी शरीर में उत्पन्न होनेवाली १. निशीथभाष्य ११.३६४७ में निम्नलिखित आठ व्याधियां बतायी गयी है ज्वर, श्वास, कास, दाह, अतिसार, भगंदर, शूल, अजीर्ण । तथा देखिए ज्ञातृधर्मकथा १३, पृ. १४४ (वैद्य संस्करण) । २. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति २४, पृ. १२०; जीवाभिगम ३, पृ. १५३; व्याख्याप्रज्ञप्ति ३.६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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