Book Title: Ayurved tatha Mahavir ka Garbhapaharan
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 10
________________ डिसेम्बर २००८ ७५ वैद्य लोग चीरफाड़ भी करते थे । जैनसूत्रों में दो प्रकार के व्रण बताये गये हैं - तद्भव और आगन्तुक । कुष्ठ, किटिभ, दद्रू, विचर्चिका, पामा और गंडालिया (पेट के कृमि)- ये तद्भव व्रण हैं, तथा जो व्रण खड्ग, कण्टक, ढूंठ, शिरावेध, सर्प अथवा कुत्ते के काटने से पैदा हो उसे आगन्तुक व्रण कहा गया है । वैद्य व्रणों को पानी से धोकर उन पर तेल, घी, चर्बी और मक्खन आदि चुपड़ते और गाय, भैंस आदि का गोबर लगाते ।। गण्डमाला, अर्श और भगन्दर आदि रोगों पर शस्त्रक्रिया की जाती थी । इसके सिवाय, वैद्यलोग युद्ध आदि में घाव लग जाने पर मरहमपट्टी करते थे । युद्ध के समय वे औषध, व्रणपट्ट, मालिश का सामान, व्रणरोहक तेल, व्रणरोहक चूर्ण, बहुत पुराना घी आदि साथमें लेकर युद्धस्थल पर पहुंचते और आवश्यकता पड़ने पर घावों को सीते ।। जैन साधुओं की चिकित्सा व्याधि से ग्रस्त होने पर जैन साधुओं को अपनी चिकित्सा के लिए दूसरों पर अवलम्बित रहना पड़ता था । यदि कोई साधु चिकित्सा में कुशल हुआ तो ठीक, नहीं तो रोगी को कुशल वैद्य को दिखाना पड़ता था । ऐसी हालत में यदि ग्लान साधु को वैद्य के घर ले जाना पड़ता और मार्गजन्य आतापना आदि के कारण उसका प्राणान्त हो जाता तो वैद्य रोगी को वहां लाने वाले साधुओं को आक्रोशपूर्ण वचन कहता । ऐसी हालत में सगुन विचार कर ही वैद्य के घर रोगी को ले जाने या उसे बुलाकर लाने का आदेश है । यदि वैद्य एक धोती पहने हो, तेल की मालिश करा रहा हो, उबटन लगवा रहा हो, राख के ढेर या कूड़ी के पास खड़ा हो, चीर-फाड़ कर रहा हो, घट या तुम्बीको फाड़ रहा हो या वह शिराभेद कर रहा हो तो उस समय १. वृणोति यस्मात् रूढेऽपि, व्रणवस्तु न नश्यति । आदेहधारणात्तस्माद्, व्रण इत्युच्यते बुधैः ॥ - सुश्रुत, सूत्रस्थान २१.३९ । २. निशीथभाष्य ३.१५०१ । ३. निशीथसूत्र ३.२२-२४, १२.३२; निशीथभाष्य १२.४१९९ । ४. निशीथसूत्र ३.३४ । ५. व्यवहारभाष्य ५.१००-१०३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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