________________ अनुसन्धान 46 और रात्रि का ही प्रतीक समझना चाहिए / इसी तरह डॉक्टर साहब का कथन है कि सौरमण्डल के जिन वीर पुरुषों का जन्म द्विमाताओं से स्वीकार किया गया है, उनके जन्म को वास्तव में दिव्य-मानव-जन्म समझना चाहिए, जिसकी भविष्यवाणी पहलेसे ही अनेक रूप में की जा चुकी होती है। लेखक ने यहां हैरेक्लीज़, अग्नि, बुद्ध, महावीर और ईसामसीह के उदाहरण प्रस्तुत कर अपने कथन का समर्थन किया है। गर्भ-संक्रमण का यह स्पष्टीकरण आध्यात्मिक ही अधिक है, यथार्थता का अंश इस में भी नहीं है। नैगमेषापहृत-एक रोग . यह ठीक-ठीक कहना कठिन है कि हरिणेगमेषी द्वारा महावीर का गर्भ अपहृत किये जाने की कल्पना जैन सूत्रों में कब से रूढ हो गयी, लेकिन वैद्यकशास्त्र से पता चलता है कि नैगमेषापहृत एक प्रकार का लीन गर्भ है जिसे उपशष्कक अथवा नागोदर भी कहा गया है। कभी स्रोतों के, वात-उपद्रव से पीड़ित होने के कारण गर्भ सूख जाता है, माता की कुक्षि में वह पूर्णतया व्याप्त नहीं होता और उसकी हलचल मन्द पड़ जाती है। इससे कुक्षि की जितनी वृद्धि होनी चाहिए उतनी नहीं हो पाती / इस गर्भ के कदाचित् अचानक शान्त हो जाने पर इसे नैगमेषापहृत कहा गया है / वस्तुत: वातविकृति का ही यह परिणाम है, लेकिन भूत-पिशाच में विश्वास करने वाले इसे नैगमेषापहत कहने लगे / गर्भ के सूख जाने के कारण इसे उपशुष्कक, और कदाचित् शनैः-शनैः लीन हो जाने के कारण इसे नागोदर कहा है। इस रोग के निवारण के लिए स्त्री की मृदु स्नेह आदि से चिकित्सा करने का विधान है (देखिए, सुश्रुत, शारीरस्थान, 1061) / अतएव प्रस्तुत प्रसंग में हरिणेगमेषी द्वारा गर्भ अपहत किये जाने का यही अर्थ युक्तियुक्त प्रतीत होता है कि नैगमेषापहृत रोग से ग्रस्त होने के कारण देवानन्दा ब्राह्मणी का गर्भ अचानक शान्त हो गया, और गर्भावस्था को प्राप्त त्रिशला क्षत्रियाणीने नौ महीने पश्चात् सन्तान को प्रसव किया / इस समय से देवानन्दा के गर्भहरण की किंवदन्ती लोक में प्रसिद्ध हो गयी और बाद में चलकर इस किंवदन्ती को बुद्धिसंगत बनाने के लिए इसके साथ ब्राह्मणों की अपेक्षा क्षत्रिय जाति की श्रेष्ठता की मान्यता जोड़ दी गयी / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org