Book Title: Ayurved tatha Mahavir ka Garbhapaharan Author(s): Jagdishchandra Jain Publisher: ZZ_Anusandhan View full book textPage 9
________________ ७४ अनुसन्धान ४६ के अन्दर रखवा दिया जाता । साध्वी के यक्षाविष्ट हो जाने पर भूतचिकित्सा का विधान किया गया है ।" यदि किसी साध्वी को ऊर्ध्ववात चलता हो, बवासीर हो गयी हो, शूल उठा करता हो, उसके हाथ-पांव अपने स्थान से चल गये हों, शरीर के किसी एक अथवा सर्व अंग में वात उत्पन्न हुआ हो तो उसे अभ्यंगित करके निर्लोम चर्म में रखने का विधान है। इसी प्रकार यदि उसे हड़काया कुत्ता काट ले तो चर्म से वेष्टित करके उसे व्याघ्र के चर्म में सुलाने का आदेश है ।" वैद्यकशास्त्र के पण्डित निशीथचूर्णी (४.१९५७) में वैद्यकशास्त्र के पण्डितों को दृष्टपाठी कहा गया है । जैन ग्रन्थों में अनेक वैद्य ( शास्त्र और चिकित्सा दोनों में कुशल), वैद्यपुत्र, ज्ञायक (केवल शास्त्र में कुशल ), ज्ञायकपुत्र, चिकित्सक ( केवल चिकित्सामें कुशल) और चिकित्सकपुत्रों का उल्लेख मिलता है । वैद्य - लोग अपने शस्त्रकोश लेकर घर से निकलते तथा रोग का निदान जानकर अभ्यंग, उबटन, स्नेहपान, वमन, विरेचन, बस्तिकर्म, शिरावेध, शिरोबस्ति, पुटपाक, छाल, वल्ली, मूल, कन्द, पत्र, पुष्प, गुटिका, औषध और भैषज्य आदि द्वारा राजा, ईश्वर, सार्थवाह, अनाथ, श्रमण, ब्राह्मण, भिक्षुक आदि की चिकित्सा करते थे ।" चिकित्साशालाओं (अस्पताल) का उल्लेख मिलता है जहां वेतन पानेवाले अनेक वैद्य काम करते थे। १. बृहत्कल्पभाष्य ३.३८१५-१७ । चर्म के उपयोग के लिए देखिए सुश्रुत, सूत्रस्थान ७-४, पृ. ४२ । २. ओघनिर्युक्तिभाष्य की टीका (पृ. ४१ - अ) में चरक-सुश्रुत आदि के पण्डित को दृष्टपाठी कहा है । ३. सुश्रुत (१.४.४७-५० ) में केवल शास्त्र में कुशल, केवल चिकित्सा में कुशल तथा शास्त्र और चिकित्सा दोनों में कुशल वैद्यों का उल्लेख है । ४. निशीथचूर्णी ( ११.३४३६ ) में प्रतक्षण शस्त्र ( सर्पदंष्टके समय ऊपर से थोडीसी त्वचा काटने के लिए), अंगुलीशस्त्र (नखभंग की रक्षार्थ), शिरावेधशस्त्र ( नाड़ी बेधकर रक्त निकालने के लिए), कल्पनशस्त्र, लोहकंटिका, संड़सी, अनुवेधशलाका, व्रीहिमुख और सूचीमुख नामक शस्त्रों का उल्लेख किया गया है। विपाकसूत्र ७, पृ. ४१ । ६. ज्ञातृधर्मकथा १३, पृ. १४३ । ५. Jain Education International -- For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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