Book Title: Atula Tula Author(s): Nathmalmuni Publisher: Adarsh Sahitya Sangh View full book textPage 2
________________ जीवन-यात्रा बाहर और भीतर -दोनों का स्पर्श करती है। मैं मुनि हूं, इसलिए मैंने बाह्य जगत् से अस्पृष्ट रहने का प्रयत्न किया है, फिर भी वस्तु-जगत् में जीने वाला कोई भी देहधारी बाह्य का स्पर्श किए बिना नहीं रहता। अन्तश्चेतना घटना से जुड़े या न जुड़े, किन्तु मन उसका स्पर्श और उसके फलितों का विश्लेषण भी करता है। प्रतिक्रिया से लिप्त होना या न होना अलग प्रश्न है, किन्तु उसका साक्षात् होता ही है। मैंने अन्तर्यात्रा भी की है, अन्तश्चेतना के आलोक में बाह्य जगत् को समझने का प्रयत्न किया है। मैं सिद्ध होने का दावा नहीं करता, इसलिए इस वास्तविकता को स्वीकार करता हूं कि बाह्य-जगत् में घटित होने वाली घटनाओं से प्रभावित भी हुआ हूं, उनके आघातों से आहत और प्रतिक्रियाओं से प्रताड़ित भी हुआ हूं। प्रभाव, आहनन और प्रताड़ना के क्षणों में जो संवेदन जागा, भावनाएं प्रस्फुटित हुई और वाणी ने मौन भंग किया, वही मेरा कवित्व है। प्रस्तुत कृति के सभी श्लोक सहज स्फुरणा से स्फूर्त नहीं हैं। कुछ रचनाएं स्वतंत्र अनुभूति के क्षणों में लिखी गई हैं। उनके पीछे कोई घटना, प्रकृति का पर्यवेक्षण या कोई विशिष्ट प्रसंग नहीं है। उन रचनाओं को शुद्धकाव्य कहने की अपेक्षा दर्शन-संपुटित काव्य कहना अधिक संगत होगा। आशकवित्व में समस्या और विषय से प्रतिबद्ध होकर चला हूं। कुछ विद्वानों ने आश्चर्य-भाव से, कुछ ने चमत्कार-भाव से और कुछ ने परीक्षा-भाव से भी समस्याएं दीं। इसलिए उनकी पूर्ति में कहीं-कहीं कविकर्म की अपेक्षा बौद्धिकता का योग अधिक है। प्रस्तुत कृति में पैंतीस वर्षों (सन् १९४० से ७५) के अन्तराल में रचित रचनाएं संकलित हैं। देश-काल के परिवर्तन के साथ उनकी भाषा, शैली और अभिव्यंजना में भी अन्तर है। काव्य-रचना की पृष्ठभूमि में इतिहास की एक शृंखला है । अच्छा होता कि प्रत्येक प्रेरक स्फुरणा का इतिहास मैं लिख पाता। पर मैं वैसा कर नहीं पाया। परन्तु यह स्पष्ट है। कि कवित्व स्फुरणा की फलश्रुति होता है। Jain Edacation International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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