Book Title: Atula Tula Author(s): Nathmalmuni Publisher: Adarsh Sahitya Sangh View full book textPage 9
________________ स्व-कथ्य शरीर में निवास करने वाला भगवान् है 'संयम' और मस्तिष्क में रहने वाला सद्विचार है 'परमात्मा' । सद्विचारों का संकलन ही संत-साहित्य है। संत वह होता है जो जंगल में जाकर एकान्त साधना में जुट जाए। वह भी संत होता है जो भौतिक आकर्षणों के बीच रहता हुआ भी अनाकर्षित रहे। चारों ओर होने वाले तुमुल में जीता हुआ भी अशब्द रहे, बोलता हुआ भी मौन रहे और स्थिर रहता हुआ भी गतिमान् रहे । संत गुनगुनाते हैं, वह स्तुति बन जाती है। वे लिखते हैं, वह आत्मा का प्रतिबिम्ब हो जाता है। उनकी वाणी और कर्म आत्म-प्रत्यक्षीकरण के लिए होते हैं। उनकी आराधना आनन्द के लिए होती है। प्रस्तुत कृति 'अतुला तुला' में एक मनीषी योगी के तीस-पैतीस वर्षों के अन्तराल में अभिव्यक्ति पाने वाले विभिन्न विचारों का संकलन है । मुनिश्री आशुकवि और प्रखर दार्शनिक हैं । इन्होंने अपनी आशुकवित्व के द्वारा संस्कृत के धुरन्धर विद्वानों को चमत्कृत किया है। तत्काल प्रदत्त विषयों पर संस्कृत-कविता में बोलना, प्रदत्त समस्याओं की तत्काल पूर्ति करना-इनकी अपनी विशेषता है। पंडित-वर्ग कसौटी का हामी होता है। वह प्रत्येक को कसौटी पर कसता है। हम बनारस गए । संस्कृत महाविद्यालय के प्रांगण में प्रवचन आयोजित हुआ। 'स्यादवाद' विषय पर पंडितों, प्राध्यापकों तथा विद्यार्थियों ने सुनना चाहा। मुनिश्री ने लगभग एक घंटे तक सहज सरल संस्कृत भाषा में प्रवचन किया। उपस्थित पंडितों में से कुछ प्रसन्न हुए और कुछ अप्रसन्न । उन्होंने मुनिश्री को प्रश्नों के कटघरे में ला खड़ा कर दिया । संस्कृत में ही प्रश्न और संस्कृत में ही उत्तर। क्रम चलता रहा। प्रश्नों के बाद आशुकवित्व के लिए विषय दिए गए। विषयों के पश्चात् समस्याएं दी जाने लगीं। मुनिश्री अविचल भाव से कविता करते गए। न वे थके और न ये थके। सारी परिषद् अवाक् और मन्त्रमुग्ध । परिषद् के सदस्यों ने देखा-एक जैन श्रमण संस्कृतज्ञों के गढ़ में आकर बिना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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