Book Title: Atula Tula
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 10
________________ पराजित हुए चला जा रहा है। कुछ स्थितिपालक विद्वानों ने गुनगुनाया—'इस संत ने कुछ सिद्धि प्राप्त कर रखी है।' कुछ ने कहा-'इसे कर्णपिशाचिनी का इष्ट प्रतीत होता है। कुछ ने कुछ कहा और कुछ ने कुछ। पंडितों में मानसिक द्वेष उभरा। वह वाणी में उतरा। कर्म में उसका प्रतिबिम्ब दृग्गोचर होने लगा। मुनिश्री शान्त और उपशान्त । सूर्यास्तमन की वेला । प्रतिक्रमण का समय । चुनौती। पांच-सात संत उसी प्रांगण में रह गए । रात्रि का आगमन । पंडितों की प्रतीक्षा । कोई नहीं आया। कुछ विद्यार्थी आए। उन्होंने कहा —'महाराज ! आपने बाजी जीत ली।' पूना । लोगों ने आचार्यश्री से निवेदन किया-'आप यहां अधिक न रुकें। यहां विशेष कार्यक्रम न रखें। यह संस्कृतज्ञों की नगरी है । कहीं आपको' आचार्यश्री के मन पर इस कथन का विपरीत असर हुआ। उन्हें अपनी शिष्यसंपदा की योग्यता पर पूरा विश्वास था। वह जाग उठा। कार्यक्रम आयोजित हुए। विद्यातिलकपीठ में कार्यक्रम रखा गया। सारा सभा-स्थल विद्वत् मंडली से भर गया। विद्वानों का मन कुतूहल से परिपूर्ण था। एक श्रमण नेता के सान्निध्य में यह पहली विशाल परिषद् थी । आचार्यश्री का प्रवचन हुआ। आचार्यश्री ने आशुकवि मुनि नथमलजी का परिचय दिया और आशुकवित्व के लिए विषय और समस्याएं देने के लिए विद्वानों से कहा। कई विषय और समस्याएं दी गईं। मुनिश्री ने आशु कविता की। सभी विद्वानों ने मुनिश्री की संस्कृत-साधना की भूरि-भूरि प्रशंसा की। इसी प्रकार वाग्वधिनी सभा, पूना में एक आयोजन रखा गया। आचार्यश्री के प्रवचनोपरान्त डॉ० के० एन० बाटवे ने 'घड़ी' विषय पर स्रग्धरा छंद में आशु कविता करने के लिए मुनिश्री से अनुरोध किया। मुनिश्री ने तत्काल खड़े होकर चार श्लोक कहे । सारी सभा चित्रवत् । - इस प्रकार प्रस्तुत कृति में मुनिश्री की संस्कृत भाषा की स्फुट रचनाएं, जो विक्रम संवत् १९९८ से २०३२ के अन्तराल में रची गईं, संकलित हैं। रचनाओ के साथ रचना-काल और रचना-स्थल का निर्देश भी दे दिया गया है। साहित्य-सर्जन मुनिश्री का प्रमुख कर्म नहीं है। प्रमुख कर्म है—आत्मा की सन्निधि प्राप्त करने का प्रयत्न । वह निरंतर चलता है । इस निरंतर गतिमत्ता में इन्होंने बहुत पाया और बहुत दिया। इन्होंने दिया ही दिया है, लिया कुछ भी नहीं। यदि कहीं कुछ लिया भी है तो उसे हज़ार गुना कर पुनः लौटा दिया। . ये समर्पित हैं । इनका समर्पण प्रत्यादान की भावना से रहित है, इसीलिए वह मूक है । व्यवहार यह मानता है कि इस योगी मनीषी ने दिया अधिक, लिया कम । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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