Book Title: Atmonnati Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri
Publisher: Shah Harakchand Bhurabhai

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Page 5
________________ त्याग करावे छे, सने शियालनी माफक बापडा जीवो धूर्तांनी भ्रम जालमा फराइ उभयथा भ्रष्ट थाय छे.” इत्यादि कथन नास्तिको अथवा जडवादिओनुं छे. जडवादीओना मन्तव्य पर आपणे शान्त रीते विचारी शुं तो 'वदतो व्याघातः” ए न्याय निहालीशुं. कारणक “प्रत्यक्षमेकं चार्वाकाः" चार्वाको केवल एक प्रत्यक्ष प्रमाण नेज खीकारे छे. हवे जुओ, केवल प्रत्यक्ष प्रमाणनेज माननाना चार्वाकोने आपणे पूछाशुं के तमारा कहेवा प्रमाणे तो खर्ग, पुण्य, पाप इत्यादि, अनुमान प्रमाणथी सिद्ध थता कोइ पण पदार्थों छेज नहि, तो ते पदार्थोनो अभाव जे तमे मानो छो ते शुं प्रामाणिक छे के अप्रामाणिक ? जो ते तमारा अभावने अप्रामाणिक मानशो तो पछी ते पदार्थोनो अभाव प्रामाणिक नथी अर्थात् ते तमारू कथन अप्रामाणिक छ अर्बु सिद्ध थशे, एटले के खर्ग, पुण्य, पापादि वस्तुओनो सद्भाव सिद्ध थशे, अने हवे कदाच ते अभावने प्रामाणिक मानवा जशो तो पण दोष तमारा उपर लागेलोज छे कारण के स्वर्ग, पुण्य, पापादि परोक्ष पदार्थोनो जे अभाव तमारे सिद्ध करवो छे ते अभाव तमारा मानेला केवल प्रत्यक्ष प्रमाणथी सिद्ध थशे नहि. कारण के परोक्ष वस्तुओनो जे अभाव कहेवो ते अनुमान कर्या सिवाय कही शकायज नहि एवो न्याय छे.

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