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जब कि वास्तविकता यह थी कि आत्माराम जी महाराज
को अपने जीवन में संगीत - साधना करने का का मौका ही नहीं मिला था और ना ही वह कभी किसी उस्ताद के पास तालीम हासिल करने गये थे । उस समय के सयोग ही ऐसे थे कि उनमें और संगीत में कोसो अंतर पड़ गया था ।
"स ंगीत - वगीत से हमारा कभी वास्ता ही नहीं पड़ा । " अधीर भक्त के आश्चर्य का पारावार न रहा । तब भला यह कैसे संभव है ? संगीत की साधना किए बिना सौंपूर्ण व्याख्यान में एक लयता आ ही कैसे सकती है ? अवश्य इसमें कोई रहस्यभेद है | वरना ऐशा हो हो नहीं सकता |
जिज्ञासु भक्त स्वयं संगीत का अच्छा बात टालने मात्र से उसे भला संतोष कैसे पल स्तब्ध हो, वह महाराज जी की ओर ही रहा ।
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" उपाश्रय के आस-पास स्थित मकानों से रात्रि के समय संगीत के सुर जब कान पर टकराते अथवा गृहणियों की मधुर गुनगुनाहट सुनाई पड़ती, तब मैं उन सार और सुरों का ध्यानपूर्वक सुनता | मन ही मन संगीत की मृदुता एवं महत्ता
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झाता था । अतः होता ? पल दा
अनिमिष देखता