Book Title: Atmanand Prakash Pustak 092 Ank 01 02
Author(s): Pramodkant K Shah
Publisher: Jain Atmanand Sabha Bhavnagar

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Page 17
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २ www.kobatirth.org सब अपने पास बुलाया और प्रेम से समझाते हुए कहा, 'हे वत्स ! देव गुरु की कृपा से ठीक हैं परन्तु कई ऐसे काम है जो व्यक्ति को स्वयं करने पडते हैं । इन में में कुछ इस प्रकार हैं Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir આત્માન ઃ પ્રકાશ कर लिया । एक बार जिनदत्त कहीं जा रहा था उस समय एक जुआरी ने उसे अपने पास बुलाया और उस के साथ जुआ खेलने लगा । उस में वह बहुत सा धन हार गया । उस धन को देने के लिये उस ने अपने खजांची को पत्र लिखा परन्तु खजांचीने उसे कोई घन न दियां। जब विमलमती को इस बात का पता चला तो उसने अपना एक बहुमूल्य आभूषण उन घूर्तो को दे दिया। इस घटना से उसे बहुत लज्जा का अनुभव हुआ । जिनदत्त के मन में इस प्रकार के विचार उत्पन्न हुअ', 'इस नगर में मुझे नहीं रहना चाहिए क्यों कि यहां मेरा बहुत अपमान हुवा हैं । कहा भी हैवसेन्मानाधिकं स्थानं, मानहीनं विवर्जयेत । मग्रमानं सुरै सार्ध, विमानमपि त्यज्येत || दाने तपसि मृत्यौ च भांजने नित्यकर्मणि । विद्याभ्यासे सुतोत्पत्तौ परहस्तौ न विद्यते । अर्थात दान, तपस्या, मृत्यु, भोजन, नित्य कर्म, विद्याभ्यास, पुत्र की उत्पत्ति ये कार्य दूसरे से नहीं करवाये जाते । ये कार्य तुम्हें ही करने पड़े गे । गृहस्थ के लिये तो धर्मं, अर्थ, काम की साधना इस प्रकार से करनी कही है कि कहीं भी एक दूसरे में बाबा उपस्थित न हो । कुमार मन में विचार करने लगा कि इन तीनों की साधना में धर्मं ही श्रेष्ठतम है । इस के बिना अर्थ और काम की साधना नहीं होती । अर्थात अधिक मान हो वहां ठहरना चाहिए, जहां पर मान न हो ऐसे स्थान को छोड देना चाहिए। कपमानित होने पर देवताओं को विमान सहित छोड देना चाहिए । उस के बाद कुटुम्ब के शेष सभी परि वारज़नों ने तथा मित्रों ने भी समझाने का प्रयत्न किया परन्तु जिनदत्त की बुद्धि संसार सुख की ओर नहीं लगी । कुमार इस प्रकार विचार करने लगा, 'लोग अर्थ और काम बिना किसी के सिखाये सीख ले ते है परन्तु धर्मं को तो सीखना ही पडता है ।" उस की रुचि घर्मं में पूर्ववत स्थिर रही और तो क्षणिक दुःख हैं परन्तु अपमानित प्रतिदिन विशेष रुप से धर्मांचरण करने लगा । वरं प्राणपरित्यागो मा मानखण्डना, मृत्युश्च क्षणिकं दुःख, मानभङ्गे दिने दिने । अर्थात- प्राणों का त्याग करना श्रेष्ठ है परन्तु अपमानित होना ठीक नहीं । मृत्यु का होना पडता है । एक बार जीवदेव सेठ ने घतकारों के साथ बातचीत की और उसने कहा, 'मेरे पुत्र को अपनी मण्डली में शा मल कर लो ।' जुआ खेलनेवालों ने सेठ के वचन को स्वीकार For Private And Personal Use Only इस प्रकार विचार करते हुए उसने अपनी पत्नी को मायके भेज दिया और स्वयं अपना नगर छोड कर कहीं और चला गया । घर से निकलने के पश्चात जिनदत्त

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