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लेता हैं ।
सज्जनो ! महाव्रत लेना कितना महत्वपूर्ण कार्य हैं और लेने के बाद पतित होजाते है, तब फिर इसके लिये पश्चाताप कैसे करते है ? इसका उदाहरण है । अरणिक विचारता हैं: ' जिस माता की कुक्षी से जन्म लिया और जिसने मेरे आत्मा के कल्याण के लिये दीक्षा दी, और स्वयंने भी ली, उस माता को मेरे लिये आज रोने का समय आया हैं । धिक्कार हैं मेरे आत्मा को ! मैने चारित्र लेकर वया किया ? मैं ने पांच महाव्रत लेकर क्या किया ? यह साधु वेष लेकर क्या अनथं किया ? सब कुछ डुबो दिया ? | आज अपने आत्मा का पतन करदिया ? हाय धिक्कार है मुझे ! अरणिक माता के पास नीचे आता हैं
,
गोथी उतरीरे जननी पाय पडपो,
मन शु लाज्यों अपारो जी । हूं कायर छ रे मारी मावडी,
मैं कीधो अविचारो जी ।। अरणिक
माता के चरणो में गिर जाता है । पश्चात्ताप करता है । रोने लगता हैं- 'मा ! मैने तेरी कुक्षी को लजाया है । माफ कर ! प्रायश्चित्त करने को तैयार हूं ।"
प्यारे मित्रो ! यह महाव्रत की प्रतिज्ञा लेकर महाव्रत नहीं पालने का परिणाम है । अगर उसने प्रतिज्ञा न ली होती, तो यह पश्चात्ताप कभी नहीं करता ।
माता भी इसी समय यह नहीं कहती
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આત્માનંદ પ્રકાશ
कि: “तू घर चल और शादी करले ।" परंतु के पास यही कहती है कि - " मैं तुझे गुरू लेजाती हू, और जो कुछ प्रायश्चित्त या दंड दे लेकर त अपने आत्मा का कल्याण करले ।'
एक पुत्र अपने आत्मा का कल्याण कैसे करे, यह रास्ता दिखाना यही माता-पिता का मुख्य कर्त्तव्य है । माता अरणिक को गुरु
फिर से आत्मा का उद्धार करने का मार्ग के पास लेजाती है । गुरु उपदेश देते हैं ।
बताते है, परन्तु अरणिक साफ सब्दों में जवाब देता है- 'मेरे अब चारित्रपालन नहीं हो सकता | चारित्र के कष्ट लगातार
वर्षात सहन करु', यह मेरे शरीर के वशकी बात नहीं । फिर भी मुझे मेरे आत्मा का कल्याण करना अति आवश्यक है । मैं अपना कल्याण करना चाहता हूँ, परन्तु आप ऐसा मार्ग बताइये जिससे मै जल्दी कल्याण करु ।
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'अगर तुम्हारी ऐ ही इच्छा हैं, तुम्हारा मन साफ है, दृढ विचारशक्ति है, और इच्छा है मोक्ष प्राप्त करने की, तो जाओ, वह अगर सरीखी धधकती शिला हैं इस पर संथारा करलो ।” गुरु अपने परम शिष्य को सुगम, सीघा और जल्दी का मार्ग आत्मकल्याण के लिये बताते हैं ।
अग्नि खन्तीं रे शिला ऊपरे,
अरणिके अनशन की जी | रूपविजय कहे धन्य ते मुनिवरा,
जेण मनवंछित लीधुं जी ॥
अरणिक