Book Title: Ashtasahasri Tatparya Vivaranam
Author(s): Yashovijay Gani, Vijayodaysuri
Publisher: Jain Granth Prakashak Sabha
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अष्टसहस्या ॥११॥
विषयः
पत्र पृ० पं०
यसंयोगकाला देवान वरतमवान्तरनाना पटोत्पत्तिश्वरमतन्तुसयोगकाले महापटोत्पत्तिरिति मतं दर्शितम् ११० द्वि० ३ १६२ क्षमाश्रमणपूज्यपादानुसारिणां चरमतन्तुसंयोगकाल एव क्रियमाणं कृतमिति नयेन पटोत्पत्ति स्वीकुर्वतां मतमुपदर्शितम्
१६३ अनन्तरोक्तानां सर्वनयवादानामुपपत्तिस्स्याद्वादे दर्शिता
१६४ केवलज्ञानदर्शन सिद्धत्वव्यतिरिक्ताशे पोपशमिकादिभावानां निवृत्तिर्मुक्ताविष्टा तेन चारित्रादेः क्षायिक भावस्यापि मुक्तौ नाश इति प्रतिपादितम् १६५ क्षायिको भाव: सायनन्त एवेति मतान्वरे सिद्धानामपि चारित्र मस्तीत्युपदश्यं तत्र सिद्धान्तानुपष्टम्भो दोष उपदर्शितः
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१६६ दुःखकारण निवृत्यादिप्रभवस्यानन्तसुखस्य मोक्षेsaस्थानं श्रीहरिभद्राचार्यादिवचनेन संवादितम् १६७ मुख्यदुःखध्वंसविशेषो मुक्तिरित्ययस्य खण्डनम्
१११ प्र० २
१११ प्र० ११
११२ प्र० १२
११२ प्र० १४
११२ द्वि० ५
११४ प्र० ८
विषयः
१६८ परमशुक्लध्यानरूपसमाधेरेव मुक्तिसाधनत्वं न ज्ञानचारित्रयोरित्याशङ्कोक्तसमाधिद्वारा ज्ञान चारित्रयोर्मुक्तिहेतुत्वव्यवस्थापनेनापाकृता
१६९ ज्ञानस्यैव मुक्तावुपयोगो न चारित्रस्येत्याशङ्कय प्रतिविहितम्
१७० अनेकान्तवाह्यानामेकान्तवादिनां मतं दृष्टबाधितमिति सप्तमकारिकया दर्शितम् १७१ चित्रज्ञानस्य यथैकानेकात्मकत्वं तथा कथञ्चिदसंकीर्णविशेषैकात्मनः सुखादिचैतन्यस्य वर्णसंस्थानाथात्मनः स्कन्धस्य चेति व्यवस्थापितम् १७२ चित्रज्ञाने एकानेकाकारयोः प्रतिभासेप्येकाकारत्वमेव वास्तवमित्यस्य प्रतिवन्या निरासः १७३ सुखादीनां व्यापकत्वं चैतन्ये चित्रज्ञाने पीताचाकारव्यापकत्वसमकक्षतया भावितम्
१७४ सुखादेरचेतनत्यग्राहकमनुमानमाशङ्कय निराकृतम् १७५ सुखादे: सर्वथा ज्ञानात्मकश्वमाशङ्कयापहस्तितम्
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पत्र पृ० पं०
११४ प्र० १२
११४ द्वि० ३
११६ द्वि० ७
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११६ द्वि० १३
११७ द्वि० ६
3
११७ वि० ७
११७ द्वि० १२
११८ प्र० ४
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विषयसूची पत्रम् ॥ ११॥

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