________________
पट पर मंथर गति से गतिमान वह रत्नजटित हंस-नौका मंत्री के प्रासाद के सम्मुख आयी।
हंस-नौका के मध्य में विराम-आसन पर चमकते वस्त्रों से सुसज्जित एक नवयौवना अर्ध-जागृत दशा में सो रही थी। उसने आंखें खोली।
उसके गौर वदन पर रोषाकुल चन्द्रमा अपनी सारी किरणें फेंक रहा था। किन्तु उन किरणों के आघात से भी वह चन्द्रानना तनिक भी आहत नहीं हुई।
बेचारा चन्द्रमा ! युग-युगान्तर से अनेक चन्द्राननाओं को आहत करता रहा है और आज भी उसकी वृत्ति वही है।
शशांक से इस निर्लज्ज और निष्फल प्रयत्न को आवृत करने के लिए एक बादल का टुकड़ा आया। इतने में ही कमल को लज्जित करने वाले लोल-लोचनों से उस नवयौवना ने अत्यन्त मृदु और मधुर स्वर में कहा'चित्रा.....!'
'क्या आज्ञा है, देवी?' यह कहती हुई समानवया चित्रा उठ खड़ी हुई। 'कुछ सुन रही हो?'
प्रश्न को न समझ सकने के कारण चित्रा ने चारों ओर देखा। उसने देखा कि गंगा के प्रवाह में बहुत दूर पांच-सात नौकाएं आ रही हैं।
नवयौवना ने कहा- 'वत्सक को कहो कि वह नौका की गति को धीमी करे।'
'तब तो विलम्ब हो जाएगा, देवी!'
'विलम्ब!' मधुर हास्य बिखेरती हुई नवयौवना बोली- 'कुछ ऊपर देख! अभी चन्द्रमा मध्य आकाश में नहीं पहुंचा है।' इतना कहकर वह स्वर-संधान में तन्मय हो गई।
चित्रा कुछ भी नहीं समझी। वह नौका-चालक वत्सक के पास जाने के लिए ज्यों ही आगे बढ़ी, चन्द्रवदना का प्रश्न उसके कानों से टकराया- 'तुझे कुछ भी सुनाई नहीं देता। लगता है कि तेरा चित्त उद्दालक के स्वप्नों में खो गया है !'
आर्यस्थूलभद्र और कोशा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org