Book Title: Arhat Vachan 2003 01
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 2
________________ प्रकाशकीय उद्गार सूचना एवं संचार क्रांति के वर्तमान युगा में जब इलेक्ट्रानिक मीडिया पर विपुल ज्ञान राशि उपलब्ध है एवं इस कोष में निरन्तर वृद्धि हो रही है, तब भी प्रिन्ट मीडिया का महत्व घटा नहीं है अपतुि ज्ञान प्राप्ति की जिज्ञासा बढ़ जा से प्रिन्ट मीडिया के प्रति रुझान बढ़ा ही है। इसका सबल प्रमाण ठगत दशकों में जैन समाज द्वारा प्रकाशित होने वाली सामाजिक पत्र-पत्रिकाओ की संख्या में वृद्धि है। गत सितम्बर 1988 से अनवरत रूप से प्रकाशित हो रही अर्हत् वचन पत्रिका के 14 वर्षों में सन 2002 तक 56 अंक प्रकाशित हो चुके हैं। इन अंकों में प्रकाशित लेखों, टिप्पणियों, आख्याओं, सारां साक्षात्कारों आदि के माध्यम से जैन इतिहास/पुरातत्व, विज्ञान की विविध शाखाओं के साथ जैन दर्शी सम्बन्ध, कर्म सिद्धान्त, साहित्य, संगीत आदि के बारे में मौलिक, शोधपूर्ण सामठी प्रकाशित की। शोधार्थियों तक इसकी जानकारी व्यवस्थित एवं वर्गीकृत रूप में पहुँच सके, इस भावना से अर्हत् वचत प्रस्तुत अंक को पूर्व प्रकाशित सामग्री की वर्गीकृत सूचियों के विशेषांक' के रूप में प्रकाशित किया जा है। सामवी के संकलन, सूचीकरण, वर्गीकरण का काम जटिल, विस्तृत एवं समयसाध्य था, इस कार हम इसे संयुक्तांक 15 (1-2) के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। पाठकों को हुई क्षतिपूर्ति हम आगामी अंकों अधिक सामवी देकर करने का प्रयास करेंगे । अर्हत् वचन, कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर का मुख पत्र है एवं कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ का लक्ष्य शोध गतिविधियों को विकसित करने हेतु आधारभूत ढांचा तैयार करना एवं शोधार्थियों को सर्व प्रका सहयोठा देना है। अतः अर्हत् वचन के पाठकों को इस संस्था की अथ से अब तक की गतिविधिर परिचित कराना श्रेयस्कर होगा। इस भावना के साथ इसी अंक में ज्ञानपीठ की 16 वर्षीय (1987-20 प्रगति आख्या भी प्रस्तुत की है। आशा है पाठकगण इस प्रयास को उपयोगी पायेंगे । प्रस्तुत अंक के संकलन, संयोजन एवं सम्पादन में डॉ. अनुपम जैन एवं उनकी पूरी टीम ने अनथक परिश्रम किया है एतदर्थ उन्हें साधुवाद। अंक पर पाठकों की प्रतिक्रियाओं का सदैव स्वागत है। हमें विश्वास है कि उन्हें यह अंक उपयोगी लगेगा। श्रुत पंचमी, 5 जून 2003 देवकुमारसिंह कासलीवाल

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