Book Title: Arhat Parshva and Dharnendra Nexus
Author(s): M A Dhaky
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 81
________________ Arbat Pārsva with Dharanendra in Hymnic Literature कमठ दाणव दलि-अमाहप्प, फणमंडविमंडिउ भुवणज्झिमहिमाहि गज्झइ, पउमावइ वयरुट्ट जुअ धरणराय जस पाय पुज्जइ, थंभण सामीसर हसया जइ इच्छह भवपार, दुक्खभार चूरइ सयल भविअहं मंगलकार ॥८॥ ___- श्री बहुतीर्थस्तुति Next may be quoted a relevant verse from the Mantrādbirāja-kalpa of Sāgaracandra, an author of an unknown gaccha and date (but probably of the 15th century if not of earlier times):57 अन्त:स्फुरद्रुचिरसञ्चितसप्तत्त्वकोटोपतिर्जिनपतिः प्रकटध्वजोऽस्तु । वामासुतः फणमिषात् फणिपस्य विश्वविश्वार्तिसंहतिहरो व्यवहारिवद् यः ॥ ४॥ - श्रीमन्त्राधिराजकल्प In the 17th century, too, there are a few instances of good hymnical compositions: Upādhyāya Yaśovijaya (A.D. 1622-1689), the last of the Nirgrantha luminary in the field of epistemology, had also composed some hymns; of these the one on the Sankheśvara-Pārsvanātha is brilliantly eloquent. From this hymn some six resonant verses may be cited as illustration: 58 फणामणीनं घृणिभिर्भुवीश ! मूर्तिस्तवाभति विनीलकान्तिः । उद्भिनरक्ताभिनवप्रवालप्ररोहमिश्रेव कलिन्दकन्या ॥ ३१ ॥ तेवश ! मौलौ रुचिराः स्फुरन्ति फणाः फणीन्द्रप्रवरस्य सप्त । तमोभरं सप्तजगज्जनानां धृता निहन्तुं किमु सप्त दीपाः ॥ ३२॥ त्वन्मौलिविस्फारफणामणीनां भाभिर्विनिर्यत्तिमिरासु दिक्षु । स्वकान्तिकीर्तिप्रशमात् प्रदीपाः शिखामिषात् खेदमिवोगिरन्ति ॥ ३३ ॥ ध्यानानले सप्तभयेन्धनानि हुतानि तीव्राभयभावनाभिः । इतीव किं शंसितुमीश ! दधे मौलौ त्वया सप्तफणी जनेभ्यः ॥ ३४॥ अष्टापि सिद्धिर्युगपत् प्रदातुं किमष्ट मूर्तीस्त्वमिहानतानाम् । सप्तस्फुरद्दीप्तफणामणीनां क्रोडेषु सङ्क्रान्ततनुर्दधासि ॥ ३५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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