Book Title: Arhat Parshva and Dharnendra Nexus
Author(s): M A Dhaky
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 89
________________ Pārsvanātha Pratimäen 71 कुषाणकाल की पार्श्वनाथ की बैठी मूर्तियाँ : भगवान् पार्श्व की एक बैठी प्रतिमा कंकाली टीला मथुरा से कुषाणकाल पाई गई है। पहले प्रतिमा सिरहीन पाई गई थी बाद में उसके मस्तक को ढूंढ़कर उस पर लगा दिया गया। चरण चौकी पर हुविष्क संवत् सरे अष्टापन ....अंकित पाते हैं। इसे हुविष्क व वासुदेव के वर्ष ५८ से सम्बद्ध किया गया है। सर्पफण के भीतर की ओर बाईं ओर हवा में उड़ते एक देव का अंकन है तथा पीछे अशोक वृक्ष का मनोहारी अंकन है। लेख में अष्ठापन अर्थात् ५८ अंकों में न लिखकर शब्दों में लिखे गये हैं। मूर्ति के मस्तक पर धुंघराले बाल हैं। स्तूप के साथ पार्श्व२ : संग्रह में एक पार्श्व का अंकन भी स्तूप के साथ बड़ा ही महत्वपूर्ण है। पटिया पर ऊपर की ओर दाईं ओर छूट गया है मूल पृष्ठ ४ देखें । दो स्तूप हैं। बाईं ओर के अंतिम तीर्थंकर के पूर्व सप्तफणों के छत्र के नीचे पार्श्वनाथ शोभायमान हैं । इस पर लेख ९९ वर्ष नहीं है जो कि वासुदेव के समय का बैठता है। कुषाणकाल की एक अन्य बैठी मूर्ति ३ : पार्श्वनाथ सर्पफणों के नीचे विराजमान हैं। इनका सर मुंडित है। नीचे की चरण-चौकी पूरी घिस चुकी है और सर्पफणों पर स्वस्तिक, त्रिरत्न, चक्र व पुष्पगुच्छ अंकित हैं। यह हुविष्क वासुदेव के समय की प्रतीत होती है। कुषाणकालीन सर्वतोभद्र प्रतिमाएं१४ : संग्रह में पांच कुषाणयुगीन सर्वतोभद्र प्रतिमाओं पर तीर्थंकर पार्श्वनाथ को अंकित पाते हैं। इनमें जे० २३० प्रतिमा उल्लेखनीय है जो कित पाते हैं। इनमें जे० २३० प्रतिमा उल्लेखनीय है जो कि कनिष्क द्वितीय के समय की अर्थात् २५७ ई० की प्रतीत होती है। इस पर सन् १५ अंकित है। दाईं ओर अधपालक का भी अंकन है जिसका मुँह खंडित है और दूसरी अन्य प्रतिमा पर भी पार्श्व कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े हुए हैं। मथुरा संग्रहालय में भी ऐसी पांच तीर्थंकर प्रतिमाएँ हैं। ये सभी लाल चित्तीदार बलुए पत्थर की हैं। संक्रान्तिकाल की पार्श्व प्रतिमा'६ : संकलन में पार्श्व की एक ऐसी कायोत्सर्ग मुद्रा में मूर्ति उपलब्ध होती है जो कि ढलते कुषाणकाल व उगते गुप्तकाल की प्रतीत होती है क्योंकि तीर्थंकर की शरीर रचना व उनके उपासक का मुकुट व बाईं ओर खड़ी स्त्री मूर्ति जिसके ऊपर सर्पफण का आभास मिलता है। पद्मावती प्रतीत होती हैं। मूल मूर्ति का मुँह, हाथ व पैर खंडित हो चुके हैं। सर्पफण भी घिस चुके हैं। एक फण पर चक्र बचा है। गुप्तकाल : पार्श्व प्रतिमा : संग्रह में मात्र एक लगभग पाँचवीं शती की पार्श्व प्रतिमा है। इसकी शारीरिक गठन, तलुओं की मांसलता, श्रीवत्स की संरचना आदि के आधार पर इसे पाँचवीं शताब्दी का माना जा सकता है। मथुरा संग्रहालय से कोई भी गुप्तकाल की पार्श्व प्रतिमा का उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है। मध्यकाल में इस मूर्ति के मस्तक पर तिलक बनाना व आँखों को बड़ा व नाक को खंडित किया गया शैल स्तम्भ, गुप्तकाल कहायूं, देवरिया८ : गुप्तकाल में पार्श्व प्रतिमाएँ कम मिलती हैं जिसका कारण कछ भी रहा हो किन्तु इसी काल का अभिलिखित गुप्त संवत् १४१+३१९ = ४६० ई० का कहाऊं ग्राम जनपद देवरिया का सम्राट स्कन्दगुप्त के पाँचवें राज्य वर्ष का अपना ही महत्व है। इसके विषय में सर्वप्रथम १९वीं सदी में आरम्भ में बुचानन ने ध्यान इस ओर दिलवाया था। १८३९ में लिस्टननेहस स्थान का परिचय प्रकाशित किया और १८६१-६२ मे कनिघम ने सर्वेक्षण कर इसका पूरा लेख प्रकाशित किया। लेख से विदित होता है कि मद्र ने : आदिकर्तृन : ऋषभ, शान्ति, नेमि, महावीर व पार्श्व की प्रतिमाएँ इस स्तम्भ पर नव उत्कीर्ण करवाई। चार तीर्थंकरों की खडी प्रतिमाएँ व पार्श्व की बैठी प्रतिमा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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